राम रक्षा स्तोत्र हिंदी अर्थ और इसके लाभ / Ram Raksha Stotr
राम रक्षा स्तोत्र की रचना बुद्ध कौशिक ऋषि
जिन्हें ऋषि विश्वामित्र भी कहते है के द्वारा की गयी है| ऐसा कहा जाता है कि उनको स्वप्न में भगवान
शिवजी ने दर्शन दिए और इस स्तोत्र को सुनाया था| बुद्ध कौशिक ऋषि जी ने उसको उठकर वैसे का
वैसा ही लिख दिया था|
श्री राम चन्द्र जी को खुश करने के लिए इस स्तोत्र की रचना की गयी है| इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से मनुष्य या
साधको के समस्त पाप नष्ट ही जाते है और उसे सदैव मंगल और विजय की ही प्राप्ति होती
है| भक्त भक्ति एवं श्रद्धा के साथ रामबल से संयुक्त होकर इस स्तोत्र का पाठ करता
हैं, वह
दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता हैं। उस जातक में
भगवान राम की सभी गुणों का समावेश हो जाता है| राम रक्षा स्तोत्र को विष्णु सहस्त्रनाम
जिंतना शुभ फल देने वाला बताया गया है|
ध्यायेदाजानुबाहुं
धृतशरधनुषं बद्धपदमासनस्थं पीतं वासो वसानं नवकमल दल स्पर्धिनेत्रम् प्रसन्नम।
वामांकारूढ़ सीता
मुखकमलमिलल्लोचनम् नीरदाभम् नानालंकारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डलम् रामचंद्रम ।।
॥ श्रीरामरक्षास्तोत्रम्
॥
॥ श्रीगणेशायनम:॥
अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य ।
बुधकौशिक ऋषि: । श्रीसीतारामचंद्रोदेवता । अनुष्टुप् छन्द: । सीता शक्ति: ।
श्रीमद्हनुमान् कीलकम्
। श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ॥
अर्थ: — इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्र के रचयिता बुध कौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमान जी कीलक है तथा श्री रामचंद्र
जी की प्रसन्नता के लिए राम रक्षा स्तोत्र के जप में विनियोग किया जाता हैं |
॥ अथ ध्यानम् ॥
ध्यायेदा-जानुबाहुं धृत-शर-धनुषं
बद्दद्पद्मासनस्थं ।
पीतं वासोवसानं नवकमलदल-स्पर्धि-नेत्रं
प्रसन्नम् ॥
वामाङ्-कारूढ-सीता
मुखकमल-मिलल्लोचनं नीरदाभं ।
नाना-लङ्कार-दीप्तं दधत-मुरु-जटा-मण्डनं
रामचंद्रम् ॥
अर्थ:- जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्द पद्मासन की
मुद्रा में विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र
नए कमल दल के समान स्पर्धा करते हैं, जो बाएँ ओर स्थित
सीताजी के मुख कमल से मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारों से विभूषित तथा जटाधारी श्रीराम का ध्यान करें।
॥ इति ध्यानम् ॥
चरितं रघुनाथस्य शतकोटि-प्रविस्तरम्
।
एकैकमक्षरं पुंसां
महापातक-नाशनम् ॥1॥
ध्यात्वा नीलोत्पल-श्यामं
रामं राजीव-लोचनम् ।
जानकी-लक्ष्मणॊ-पेतं
जटामुकुट-मण्डितम् ॥2॥
अर्थ:- श्री रघुनाथजी का
चरित्र सौ करोड़ विस्तार वाला हैं। उसका एक-एक अक्षर महापातकों को नष्ट करने वाला
है। नीले कमल के श्याम वर्ण वाले, कमलनेत्र वाले , जटाओं के मुकुट से सुशोभित, जानकी तथा लक्ष्मण
सहित ऐसे भगवान श्री राम का स्मरण करके मै धन्य होता हू|
सासि-तूण-धनुर्बाण-पाणिं
नक्तं चरान्तकम् ।
स्वलीलया जगत्त्रातुमा-विर्भूतमजं
विभुम् ॥3॥
रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञ:
पापघ्नीं सर्वकाम-दाम् ।
शिरो मे राघव: पातु भालं
दशरथात्मज: ॥4॥
अर्थ:- जो अजन्मा एवं
सर्वव्यापक, हाथों में खड्ग, तुणीर, धनुष-बाण धारण किए
राक्षसों के संहार तथा अपनी लीलाओं से जगत रक्षा हेतु अवतीर्ण श्रीराम का स्मरण
करके मैं सर्वकामप्रद और पापों को नष्ट करने वाले राम रक्षा स्तोत्र का पाठ करता
हूँ | राघव मेरे सिर की और दशरथ के पुत्र मेरे ललाट की रक्षा करें।
कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्र-प्रिय:
श्रुती ।
घ्राणं पातु मख-त्राता
मुखं सौमित्रि-वत्सल: ॥5॥
जिव्हां विद्दा-निधि:
पातु कण्ठं भरत-वंदित:।
स्कन्धौ दिव्या-युध:
पातु भुजौ भग्नेश-कार्मुक: ॥6॥
अर्थ:- कौशल्या नंदन मेरे
नेत्रों की, विश्वामित्र के प्रिय मेरे कानों की, यज्ञरक्षक मेरे
घ्राण की और सुमित्रा के वत्सल मेरे मुख की रक्षा करें। मेरी जिह्वा की विधानिधि रक्षा करें, कंठ की भरत-वंदित, कंधों की दिव्यायुध और भुजाओं की महादेवजी का धनुष तोड़ने वाले
भगवान श्रीराम रक्षा करें।
करौ सीत-पति: पातु हृदयं
जामदग्न्य-जित् ।
मध्यं पातु खर-ध्वंसी
नाभिं जाम्ब-वदाश्रय: ॥7॥
सुग्रीवेश: कटी पातु
सक्थिनी हनुमत्प्रभु: ।
ऊरू रघुत्तम: पातु
रक्ष:कुल-विनाशकृत् ॥8॥
अर्थ:- मेरे हाथों की सीता
पति श्रीराम रक्षा करें, हृदय की जमदग्नि ऋषि के पुत्र
(परशुराम) को जीतने वाले, मध्य भाग की खर (नाम के राक्षस) के
वधकर्ता और नाभि की जांबवान के आश्रयदाता रक्षा करें। मेरे कमर की सुग्रीव के स्वामी, हडियों की हनुमान के
प्रभु और रानों की राक्षस कुल का विनाश करने वाले रघुश्रेष्ठ रक्षा करें।
जानुनी सेतु-कृत्पातु
जङ्घे दशमुखा-न्तक: ।
पादौ बिभीषण-श्रीद: पातु
रामोSखिलं वपु: ॥9॥
एतां राम-बलो-पेतां
रक्षां य: सुकृती पठॆत् ।
स चिरायु: सुखी पुत्री
विजयी विनयी भवेत् ॥10॥
अर्थ:- मेरे जानुओं की
सेतुकृत, जंघाओं की दशानन वधकर्ता, चरणों की विभीषण को
ऐश्वर्य प्रदान करने वाले और सम्पूर्ण- शरीर की श्रीराम रक्षा करें। शुभ कार्य करने वाला जो भक्त भक्ति एवं श्रद्धा के साथ रामबल से
संयुक्त होकर इस स्तोत्र का पाठ करता हैं, वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता हैं।
पाताल-भूतल-व्योम चारिण-श्छद्म-चारिण:
।
न द्र्ष्टु-मपि शक्ता-स्ते
रक्षितं राम-नामभि: ॥11॥
रामेति राम-भद्रेति राम-चंद्रेति
वा स्मरन् ।
नरो न लिप्यते पापै
भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥12॥
अर्थ:- जो जीव पाताल, पृथ्वी और आकाश में विचरते रहते हैं अथवा छद्दम वेश में घूमते रहते
हैं , वे राम नामों से सुरक्षित मनुष्य को देख भी नहीं पाते। राम, रामभद्र तथा रामचंद्र आदि नामों का
स्मरण करने वाला रामभक्त पापों से लिप्त नहीं होता. इतना ही नहीं, वह अवश्य ही भोग और मोक्ष दोनों को प्राप्त करता है |
जगज्जे-त्रैक-मन्त्रेण
रामना-म्नाभिर-क्षितम् ।
य: कण्ठे धारये-त्तस्य
करस्था: सर्व-सिद्द्दय: ॥13॥
वज्र-पंजर-नामेदं यो राम-कवचं
स्मरेत् ।
अव्या-हताज्ञ: सर्वत्र
लभते जय-मंगलम् ॥14॥
अर्थ:- जो संसार पर विजय
करने वाले मंत्र राम-नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेता हैं, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। जो मनुष्य वज्रपंजर नामक इस राम कवच का स्मरण करता हैं, उसकी आज्ञा का कहीं भी उल्लंघन नहीं होता तथा उसे सदैव विजय और
मंगल की ही प्राप्ति होती हैं।
आदिष्ट-वान्यथा स्वप्ने
राम-रक्षा-मिमां हर: ।
तथा लिखित-वान् प्रात:
प्रबुद्धो बुध-कौशिक: ॥15॥
आराम: कल्प-वृक्षाणां
विराम: सकला-पदाम् ।
अभिराम-स्त्रिलोकानां
राम: श्रीमान् स न: प्रभु: ॥16॥
अर्थ:- भगवान शंकर ने
स्वप्न में इस रामरक्षा स्तोत्र का आदेश बुध कौशिक ऋषि को दिया था, उन्होंने प्रातः काल जागने पर उसे वैसा ही लिख दिया। जो कल्प वृक्षों के बगीचे के समान विश्राम देने वाले हैं, जो समस्त विपत्तियों को दूर करने वाले हैं (विराम माने थमा देना, किसको थमा देना/दूर कर देना ? सकलापदाम = सकल आपदा
= सारी विपत्तियों को) और जो तीनो लोकों में सुंदर (अभिराम +
स्+ त्रिलोकानाम) हैं, वही श्रीमान राम हमारे प्रभु हैं।
तरुणौ रूप-संपन्नौ
सुकुमारौ महाबलौ ।
पुण्डरीक-विशालाक्षौ चीर-कृष्णा-जिनाम्बरौ
॥17॥
फलमूल-शिनौ दान्तौ तापसौ
ब्रह्मचारिणौ ।
पुत्रौ दशरथ-स्यैतौ
भ्रातरौ राम-लक्ष्मणौ ॥18॥
अर्थ:- जो युवा, सुन्दर, सुकुमार, महाबली और कमल (पुण्डरीक) के समान
विशाल नेत्रों वाले हैं, मुनियों की तरह वस्त्र एवं काले मृग का
चर्म धारण करते हैं। जो फल और कंद का आहार ग्रहण करते हैं, जो संयमी , तपस्वी एवं ब्रह्रमचारी हैं , वे दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें।
शरण्यौ सर्व-सत्वानां
श्रेष्ठौ सर्व-धनु-ष्मताम् ।
रक्ष:कुल-निहन्तारौ
त्रायेतां नो रघुत्तमौ ॥19॥
आत्त-सज्ज-धनुषा विषु-स्पृशा
वक्षया शुग-निषङ्ग सङिगनौ ।
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा
वग्रत: पथि सदैव गच्छताम् ॥20॥
अर्थ:- ऐसे महाबली –
रघुश्रेष्ठ मर्यादा पुरूषोतम समस्त प्राणियों के शरणदाता, सभी धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षसों के कुलों का समूल नाश
करने में समर्थ हमारा त्राण करें। संघान किए धनुष धारण किए, बाण का स्पर्श कर रहे, अक्षय बाणों से
युक्त तुणीर लिए हुए राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिए मेरे आगे चलें।
संनद्ध: कवची खड्गी चाप-बाण-धरो
युवा ।
गच्छन्-मनोरथो-Sस्माकं राम: पातु सलक्ष्मण: ॥21॥
रामो दाशरथि: शूरो
लक्ष्मणा-नुचरो बली ।
काकु-त्स्थ: पुरुष:
पूर्ण: कौसल्येयो रघुत्तम: ॥22॥
वेदान्त-वेद्यो यज्ञेश:
पुराण-पुरुषोत्तम: ।
जानकी-वल्लभ: श्रीमान-प्रमेय
पराक्रम: ॥23॥
इत्ये-तानि जपे-न्नित्यं
मद्-भक्त: श्रद्ध-यान्वित: ।
अश्वमेधा-धिकं पुण्यं
संप्रा-प्नोति न संशय: ॥24॥
अर्थ:- हमेशा तत्पर, कवचधारी, हाथ में खडग, धनुष-बाण तथा युवावस्था वाले भगवान राम लक्ष्मण सहित आगे-आगे चलकर
हमारी रक्षा करें। भगवान का कथन है कि श्रीराम, दशरथी, शूर, लक्ष्मनाचुर, बली, काकुत्स्थ , पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघुतम, वेदान्त्वेघ, यज्ञेश, पुराण पुरूषोतम, जानकी वल्लभ, श्रीमान और अप्रमेय पराक्रम आदि नामों
का नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करने वाले को निश्चित रूप से अश्वमेध यज्ञ से भी
अधिक फल प्राप्त होता हैं।
रामं दूर्वादल-श्यामं
पद्माक्षं पीत-वाससम् ।
स्तुवन्ति नामभि-र्दिव्यैर्न
ते संसारिणो नर: ॥25॥
रामं लक्शमण पूर्वजं
रघुवरं सीतापतिं सुंदरम् ।
काकुत्स्थं करुणा-र्णवं
गुण-निधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्
राजेन्द्रं सत्यसंधं
दशरथनयं श्यामलं शान्त-मूर्तिम् ।
वन्दे लोकभि-रामं रघुकुल-तिलकं
राघवं रावणा-रिम् ॥26॥
अर्थ:- दूर्वादल के समान
श्याम वर्ण, कमल-नयन एवं पीतांबरधारी श्रीराम की उपरोक्त दिव्य नामों से स्तुति
करने वाला संसारचक्र में नहीं पड़ता। लक्ष्मण जी के पूर्वज, सीताजी के पति, काकुत्स्थ, कुल-नंदन, करुणा के सागर, गुण-निधान, विप्र भक्त, परम धार्मिक, राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथ के पुत्र, श्याम और शांत मूर्ति, सम्पूर्ण लोकों में
सुन्दर, रघुकुल तिलक, राघव एवं रावण के शत्रु भगवान् राम की
मैं वंदना करता हूँ।
रामाय रामभद्राय
रामचंद्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीताया:
पतये नम: ॥27॥
अर्थ:- राम, रामभद्र, रामचंद्र, विधात स्वरूप , रघुनाथ, प्रभु एवं सीताजी के
स्वामी की मैं वंदना करता हूँ।
श्रीराम राम रघुनन्दन
राम राम ।
श्रीराम राम भरता-ग्रज
राम राम ।
श्रीराम राम रण-कर्कश
राम राम ।
श्रीराम राम शरणं भव राम
राम ॥28॥
अर्थ:- हे रघुनन्दन
श्रीराम ! हे भरत के अग्रज भगवान् राम! हे रणधीर, मर्यादा पुरुषोत्तम
श्रीराम ! आप मुझे शरण दीजिए।
श्रीरामचन्द्र-चरणौ मनसा
स्मरामि ।
श्रीरामचन्द्र-चरणौ वचसा
गृणामि ।
श्रीरामचन्द्र-चरणौ
शिरसा नमामि ।
श्रीरामचन्द्र-चरणौ शरणं
प्रपद्ये ॥29॥
अर्थ:- मैं एकाग्र मन से
श्रीरामचंद्रजी के चरणों का स्मरण और वाणी से गुणगान करता हूँ, वाणी द्धारा और पूरी श्रद्धा के साथ भगवान् रामचन्द्र के चरणों को
प्रणाम करता हुआ मैं उनके चरणों की शरण लेता हूँ।
माता रामो मत्पिता
रामचंन्द्र: ।
स्वामी रामो मत्सखा
रामचंद्र: ।
सर्वस्वं मे रामचन्द्रो
दयालु ।
नान्यं जाने नैव जाने न
जाने ॥30॥
अर्थ:- श्रीराम मेरे माता, मेरे पिता , मेरे स्वामी और मेरे सखा हैं | इस प्रकार दयालु श्रीराम मेरे सर्वस्व हैं. उनके सिवा में किसी
दुसरे को नहीं जानता।
दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य
वामे तु जनका-त्मजा।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं
वन्दे रघु-नंदनम् ॥31॥
अर्थ:- जिनके दाईं और
लक्ष्मण जी, बाईं और जानकी जी और सामने हनुमान ही विराजमान हैं, मैं उन्ही रघुनाथ जी की वंदना करता हूँ।
लोकाभि-रामं रनरङ्ग-धीरं
राजीव-नेत्रं रघुवंश-नाथम् ।
कारुण्य-रूपं करुणा-करंतं
श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥32॥
अर्थ:- मैं सम्पूर्ण लोकों
में सुन्दर तथा रणक्रीड़ा में धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणा की मूर्ति और करुणा के भण्डार की
श्रीराम की शरण में हूँ।
मनोजवं मारुत-तुल्य-वेगं
जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानर-यूथ-मुख्यं
श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥33॥
अर्थ:- जिनकी गति मन के
समान और वेग वायु के समान (अत्यंत तेज) है, जो परम जितेन्द्रिय
एवं बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, मैं उन पवन-नंदन वानरग्रगण्य श्रीराम
दूत की शरण लेता हूँ ।
कूजन्तं राम-रामेति
मधुरं मधुरा-क्षरम् ।
आरुह्य कविता-शाखां
वन्दे वाल्मीकि-कोकिलम् ॥34॥
अर्थ:- मैं कवितामयी डाली
पर बैठकर, मधुर अक्षरों वाले ‘राम-राम’ के मधुर नाम को कूजते हुए वाल्मीकि
रुपी कोयल की वंदना करता हूँ।
आपदाम-पहर्तारं दातारं सर्व-संपदाम्
।
लोकाभि-रामं श्रीरामं
भूयो भूयो नमा-म्यहम् ॥35॥
अर्थ:- मैं इस संसार के
प्रिय एवं सुन्दर उन भगवान् राम को बार-बार नमन करता हूँ, जो सभी आपदाओं को दूर करने वाले तथा सुख-सम्पति प्रदान करने वाले
हैं।
भर्जनं भवबीजानाम-र्जनं
सुख-संपदाम् ।
तर्जनं यम-दूतानां राम-रामेति
गर्जनम् ॥36॥
अर्थ:- ‘राम-राम’ का जप करने से मनुष्य के सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं। वह
समस्त सुख-सम्पति तथा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता हैं। राम-राम की गर्जना से यमदूत
सदा भयभीत रहते हैं।
रामो राजमणि: सदा विजयते
रामं रमेशं भजे ।
रामेणा-भिहता निशाचर-चमू
रामाय तस्मै नम: ।
रामान्ना-स्ति परायणं
परतरं रामस्य दासो-Sस्म्यहम् ।
रामे चित्तलय: सदा भवतु
मे भो राम मामुद्धर ॥37॥
अर्थ:- राजाओं में श्रेष्ठ श्रीराम सदा विजय को प्राप्त करते हैं। मैं
लक्ष्मीपति भगवान् श्रीराम का भजन करता हूँ। सम्पूर्ण राक्षस सेना का नाश करने
वाले श्रीराम को मैं नमस्कार करता हूँ। श्रीराम के समान अन्य कोई आश्रयदाता नहीं।
मैं उन शरणागत वत्सल का दास हूँ। मैं हमेशा श्रीराम मैं ही लीन रहूँ। हे श्रीराम!
आप मेरा (इस संसार सागर से) उद्धार करें।
राम रामेति रामेति रमे
रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं
रामनाम वरानने ॥38॥
अर्थ:- शिव पार्वती से
बोले – हे सुमुखी! राम- नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ के समान हैं। मैं सदा राम का
स्तवन करता हूँ और राम-नाम में ही रमण करता हूँ।
इति श्रीबुधकौशिक-विरचितं
श्रीरामरक्षा-स्तोत्रं संपूर्णम् ॥
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें