1000 Names of Lord Shiv / शिव सहस्त्रनाम / भगवान शिव के 1000 नाम हिंदी अर्थ सहित
भगवान शिव के 1000 नामों का वर्णन बहुत से हिंदू पुराणों में मिलता है जिसमे महाभारत के 13वे अनुसासन पर्व के 17वे अध्याय को मुख्य माना जाता है| शिव सहस्त्रनाम का वर्णन अन्य पुराण जैसे- लिंग पुराण, शिव पुराण, वायु पुराण, ब्रह्मा पुराण, महाभागवत उपपुराण में मिलता है|
भगवान शिव के 1000 नाम हिंदी अर्थ सहित
सूत उवाच
श्रूयतां भो ऋषिश्रेष्ठा येन
तुष्टो महेश्वरः।
तदहं कथयाम्यद्य शैवं
नामसहस्रकम्॥1॥
सूतजी बोले – मुनिवरो! सुनो, जिससे महेश्वर संतुष्ट होते हैं, वह शिवसहस्रनाम स्तोत्र आज तुम सबको
सुना रहा हूँ|
विष्णुरुवाच शिवो हरो मृडो
रुद्रः पुष्करः पुष्पलोचनः।
अर्थिगम्यः सदाचारः शर्वः
शम्भुर्महेश्वरः॥2॥
भगवान् विष्णुने कहा-
अर्थ:- कल्याणस्वरूप, भक्तों के पाप-ताप हर लेनेवाले, सुखदाता, दुःख दूर करनेवाले, आकाशस्वरूप, पुष्प के समान खिले हुए नेत्रवाले, प्रार्थियों को प्राप्त होनेवाले, श्रेष्ठ आचरणवाले, संहारकारी, कल्याणनिकेतन, महान् ईश्वर|
चन्द्रापीड-श्चन्द्रमौलि-र्विश्वं
विश्वम्भरेश्वरः।
वेदान्तसार-संदोहः कपाली
नीललोहितः॥3॥
अर्थ:– चन्द्रमा को शिरोभूषण के रूप में धारण
करनेवाले, सिर पर चन्द्रमा का मुकुट धारण
करनेवाले, सर्वस्वरूप, विश्व का भरण-पोषण करने वाले
श्रीविष्णु के भी ईश्वर,
वेदान्त के सारतत्त्व सच्चिदानन्दमय ब्रह्म की साकार मूर्ति, हाथ में कपाल धारण करनेवाले, (गले में) नील और (शेष अंगों में)
लोहित-वर्णवाले|
ध्यानाधारो-ऽपरिच्छेद्यो
गौरीभर्ता गणेश्वरः।
अष्टमूर्ति-र्विश्वमूर्ति-स्त्रिवर्गस्वर्गसाधनः॥4॥
अर्थ:– ध्यान के आधार, देश, काल और वस्तु की सीमा से अविभाज्य, गौरी अर्थात् पार्वतीजी के पति, प्रमथगणों के स्वामी, (जल, अग्नि, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी और यजमान) इन आठ रूपोंवाले, अखिल ब्रह्माण्डमय विराट् पुरुष, धर्म, अर्थ, काम तथा स्वर्ग की प्राप्ति करानेवाले|
ज्ञानगम्यो दृढप्रज्ञो
देवदेवस्त्रिलोचनः।
वामदेवो महादेवः पटुः
परिवृढो दृढः॥5॥
अर्थ:- ज्ञान से ही अनुभव में आने के योग्य, सुस्थिर बुद्धिवाले, देवताओं के भी आराध्य, सूर्य, चन्द्रमा और अग्निरूप तीन नेत्रोंवाले, लोक के विपरीत स्वभाववाले देवता, महान देवता ब्रह्मादिकों के भी पूजनीय, सब कुछ करने में समर्थ एवं कुशल, स्वामी, कभी विचलित न होनेवाले|
विश्वरूपो विरूपाक्षो वागीशः
शुचिसत्तमः।
सर्वप्रमाणसंवादी वृषाङ्को
वृषवाहनः॥6॥
अर्थ:– जगतस्वरूप, विकट नेत्रवाले, वाणी के अधिपति, पवित्र पुरुषों में भी सबसे श्रेष्ठ, सम्पूर्ण प्रमाणों में सामंजस्य
स्थापित करनेवाले, अपनी ध्वजा में वृषभ का चिह्न धारण
करनेवाले, वृषभ या धर्म को वाहन बनानेवाले|
ईशः पिनाकी खट्वाङ्गी
चित्रवेषश्चिरंतनः।
तमोहरो महायोगी गोप्ता
ब्रह्मा च धूर्जटिः॥7॥
अर्थ:– स्वामी या शासक, पिनाक नामक धनुष धारण करनेवाले, खाट के पाये की आकृति का एक आयुध धारण
करनेवाले, विचित्र वेषधारी, पुराण (अनादि) पुरुषोत्तम, अज्ञानान्धकार को दूर करनेवाले, महान योग से सम्पन्न, रक्षक, सृष्टिकर्ता, जटा के भार से युक्त|
कालकालः कृत्तिवासाः सुभगः
प्रणवात्मकः।
उन्नध्रः पुरुषो जुष्यो
दुर्वासाः पुरशासनः॥8॥
अर्थ:– काल के भी काल, गजासुर के चर्म को वस्त्र के रूप में
धारण करनेवाले, सौभाग्यशाली, ओंकार-स्वरूप अथवा प्रणव के वाच्यार्थ, बन्धनरहित, अन्तर्यामी आत्मा, सेवन करनेयोग्य, “दुर्वासा” नामक मुनि के रूप में
अवतीर्ण, तीन मायामय असुरपुरों का दमन करनेवाले|
दिव्यायुधः स्कन्दगुरुः
परमेष्ठी परात्परः।
अनादिमध्यनिधनो गिरीशो
गिरिजाधवः॥9॥
अर्थ– “पाशुपत” आदि दिव्य अस्त्र धारण
करनेवाले, कार्तिकेयजी के पिता, अपनी प्रकृष्ट महिमा में स्थित
रहनेवाले, कारण के भी कारण, आदि, मध्य और अन्त से रहित, कैलास के अधिपति, पार्वती के पति|
कुबेरबन्धुः श्रीकष्ठो
लोकवर्णोत्तमो मृदुः।
समाधिवेद्यः कोदण्डी
नीलकण्ठः परश्वधी॥10॥
अर्थ:– कुबेर को अपना बन्धु (मित्र) मानने वाले, श्यामसुषमा से सुशोभित कण्ठवाले, समस्त लोकों और वर्णों से श्रेष्ठ, कोमल स्वभाव वाले, समाधि अथवा चित्तवृत्तियों के निरोध से
अनुभव में आने योग्य,
धनुर्धर, कण्ठ में हालाहल विष का नील चिह्न
धारण करनेवाले, परशुधारी|
विशालाक्षो मृगव्याधः सुरेशः
सूर्यतापनः।
धर्मधाम क्षमाक्षेत्रं
भगवान् भगनेत्रभित्॥11॥
अर्थ:– बड़े-बड़े नेत्रों वाले, वन में व्याध या किरात के रूप में
प्रकट हो शूकर के ऊपर बाण चलाने वाले, देवताओं के स्वामी, सूर्य को भी दण्ड देने वाले, धर्म के आश्रय,न क्षमा के उत्पत्ति-स्थान, सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान तथा वैराग्य के आश्रय, भगदेवता के नेत्र का भेदन करने वाले|
उग्रः पशुपतिस्तार्क्ष्यः
प्रियभक्तः परंतपः।
दाता दयाकरो दक्षः कपर्दी
कामशासनः॥12॥
अर्थ:– संहारकाल में भयंकर रूप धारण करनेवाले, मायारूप में बँधे हुए पाशबद्ध पशुओं
(जीवों) को तत्त्वज्ञान के द्वारा मुक्त करके यथार्थरूप से उनका पालन करनेवाले, सोमपो गरुड़रूप, भक्तों से प्रेम करनेवाले, शत्रुता रखने-वालों को संताप देनेवाले, दानी, दयानिधान अथवा कृपा करनेवाले, कुशल, जटाजूटधारी, कामदेव का दमन करनेवाले|
श्मशाननिलयः सूक्ष्मः
श्मशानस्थो महेश्वरः।
लोककर्ता मृगपतिर्महाकर्ता
महौषधिः॥13॥
अर्थ:– श्मशानवासी, इन्द्रियातीत एवं सर्वव्यापी, श्मशान भूमि में विश्राम करनेवाले, महान ईश्वर या परमेश्वर, जगत की सृष्टि करनेवाले, मृग के पालक या पशुपति, विराट ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने के
समय महान कर्तृत्व से सम्पन्न,
भवरोग का निवारण करने के लिये महान ओषधिरूप|
उत्तरो गोपतिर्गोप्ता
ज्ञानगम्यः पुरातनः।
नीतिः सुनीतिः शुद्धात्मा
सोमः सोमरतः सुखी॥14॥
अर्थ:– संसार-सागर से पार उतारनेवाले, स्वर्ग, पृथ्वी, पशु, वाणी, किरण, इन्द्रिय और जल के स्वामी, रक्षक, तत्त्वज्ञान के द्वारा ज्ञानस्वरूप से ही
जाननेयोग्य, सबसे पुराने, न्यायस्वरूप, उत्तम नीति वाले, विशुद्ध आत्म स्वरूप, उमासहित, चन्द्रमा पर प्रेम रखने वाले, आत्मानन्द से परिपूर्ण|
सोमपोऽमृतपः सौम्यो महातेजा
महाद्युतिः।
तेजोमयोऽमृतमयोऽन्नमयश्च
सुधापतिः॥15॥
अर्थ:– सोमपान करनेवाले अथवा सोमनाथरूप से
चन्द्रमा के पालक, समाधि के द्वारा स्वरूपभूत अमृत का
आस्वादन करनेवाले, भक्तों के लिये सौम्य रूपधारी, महान तेज से सम्पन्न, परमकान्तिमान्, प्रकाशस्वरूप, अमृतरूप, अन्नरूप, अमृत के पालक|
अजातशत्रुरालोकः सम्भाव्यो
हव्यवाहनः।
लोककरो वेदकरः सूत्रकारः
सनातनः॥16॥
अर्थ:– जिनके मन में कभी किसी के प्रति शत्रुभाव
नहीं पैदा हुआ, ऐसे समदर्शी, प्रकाशस्वरूप, सम्माननीय, अग्निस्वरूप, जगत के स्रष्टा, वेदों को प्रकट करने वाले, ढक्कानाद के रूप में चतुर्दश माहेश्वर
सूत्रों के प्रणेता, नित्यस्वरूप|
महर्षिकपिलाचार्यो
विश्वदीप्तिस्त्रिलोचनः।
पिनाकपाणिर्भूदेवः स्वस्तिदः
स्वस्तिकृत्सुधीः॥17॥
अर्थ:– सांख्यशास्त्र के प्रणेता भगवान्
कपिलाचार्य, अपनी प्रभा से सबको प्रकाशित करनेवाले, तीनों लोकों के द्रष्टा, हाथ में पिनाक नामक धनुष धारण
करनेवाले, पृथ्वीके देवता, ब्राह्मण अथवा
पार्थिवलिंगरूप, कल्याणदाता, कल्याणकारी, विशुद्ध बुद्धिवाले|
धातृधामा धामकरः सर्वगः
सर्वगोचरः।
ब्रह्मसृग्विश्वसृक्सर्गः
कर्णिकारप्रियः कविः॥18॥
अर्थ:– विश्व का धारण-पोषण करने में समर्थ
तेजवाले, तेज की सृष्टि करनेवाले, सर्वव्यापी, सबमें व्याप्त, ब्रह्माजी के उत्पादक, जगत के स्रष्टा, सृष्टिस्वरूप, कनेर के फूल को पसंद करनेवाले, त्रिकालदर्शी|
शाखो विशाखो गोशाखः शिवो
भिषगनुत्तमः।
गङ्गाप्लवोदको भव्यः पुष्कलः
स्थपतिः स्थिरः॥19॥
अर्थ:– कार्तिकेय के छोटे भाई शाखस्वरूप, स्कन्द के छोटे भाई विशाखस्वरूप अथवा
विशाख नामक ऋषि, वेदवाणी की शाखाओं का विस्तार
करनेवाले, मंगलमय, भवरोग का निवारण करनेवाले वैद्यों (ज्ञानियों)
में सर्वश्रेष्ठ, गंगा के प्रवाहरूप जल को सिर पर धारण
करनेवाले, कल्याणस्वरूप, पूर्णतम अथवा व्यापक, ब्रह्माण्डरूपी भवन के निर्माता (थवई), अचंचल अथवा स्थाणुरूप|
विजितात्मा विधेयात्मा
भूतवाहनसारथिः।
सगणो गणकायश्च
सुकीर्तिश्छिन्नसंशयः॥20॥
अर्थ:– मन को वश में रखनेवाले, शरीर, मन और इन्द्रियों से अपनी इच्छा के अनुसार काम
लेनेवाले, पांच भौतिक रथ (शरीर) का संचालन
करनेवाले बुद्धिरूप सारथि,
प्रमथगणों के साथ रहनेवाले,
गणस्वरूप, उत्तम कीर्तिवाले, संशयों को काट देनेवाले|
कामदेवः कामपालो भस्मोद्धूलितविग्रहः।
भस्मप्रियो भस्मशायी कामी
कान्तः कृतागमः॥21॥
अर्थ:– मनुष्यों द्वारा अभिलषित समस्त
कामनाओं के अधिष्ठाता परमदेव,
सकाम भक्तों की कामनाओं को पूर्ण करनेवाले, अपने श्रीअंगों में भस्म रमानेवाले, भस्म के प्रेमी, भस्म पर शयन करनेवाले, अपने प्रिय भक्तों को चाहनेवाले, परम कमनीय प्राणवल्लभरूप, समस्त तन्त्रशास्त्रों के रचयिता|
समावर्तोऽनिवृत्तात्मा
धर्मपुञ्जः सदाशिवः।
अकल्मषश्चतुर्बाहुर्दुरावासो
दुरासदः॥22॥
अर्थ:– संसारचक्र को भली भाँति घुमानेवाले, सर्वत्र विद्यमान होने के कारण जिनका
आत्मा कहीं से भी हटा नहीं है, धर्म या पुण्य की राशि, निरन्तर कल्याणकारी, पापरहित, चार भुजाधारी, जिन्हें योगीजन भी बड़ी कठिनाई से अपने
हृदय मन्दिर में बसा पाते हैं,
परम दुर्जय|
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गः
सर्वायुधविशारदः।
अध्यात्मयोगनिलयः
सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः॥23॥
अर्थ:– भक्तिहीन पुरुषों को कठिनता से
प्राप्त होनेवाले, जिनके निकट पहुँचना किसी के लिये भी
कठिन है, पाप-ताप से रक्षा करने के लिये दुर्गरूप अथवा दुर्ज्ञेय, सम्पूर्ण अस्त्रों के प्रयोग की कला में
कुशल, अध्यात्म योग में स्थित, सुन्दर विस्तृत जगत रूप तन्तु वाले, जगतरूप तन्तु को बढ़ाने वाले|
शुभाङ्गो लोकसारङ्गो जगदीशो
जनार्दनः।
भस्मशुद्धिकरो मेरुरोजस्वी
शुद्धविग्रहः॥24॥
अर्थ:– सुन्दर अंगों वाले, लोकसार ग्राही, जगत के स्वामी, भक्तजनों की याचना के आलम्बन, भस्म से शुद्धि का सम्पादन करनेवाले, सुमेरु पर्वत के समान केन्द्ररूप, तेज और बल से सम्पन्न, निर्मल शरीरवाला|
असाध्यः साधुसाध्यश्च
भृत्यमर्कटरूपधृक्।
हिरण्यरेताः पौराणो
रिपुजीवहरो बली॥25॥
अर्थ:– साधन भजन से दूर रहने वाले लोगों के
लिये अलभ्य, साधन भजनपरायण सत्पुरुषों के लिये
सुलभ, श्रीराम के सेवक वानर हनुमान का रूप
धारण करनेवाले, अग्नि स्वरूप अथवा सुवर्णमय वीर्य वाले, पुराणों द्वारा प्रतिपादित, शत्रुओं के प्राण हर लेने वाले, बलशाली|
महाह्रदो महागर्तः
सिद्धवृन्दारवन्दितः।
व्याघ्रचर्माम्बरो व्याली
महाभूतो महानिधिः॥26॥
अर्थ:– परमानन्द के महान सरोवर, महान आकाशरूप, सिद्धों और देवताओं द्वारा वन्दित, व्याघ्रचर्म को वस्त्र के समान धारण
करनेवाले, सर्पों को आभूषण की भाँति धारण करने वाले, त्रिकाल में भी कभी नष्ट न होने वाले
महाभूत स्वरूप, सबके महान निवास स्थान|
अमृताशोऽमृतवपुः पाञ्चजन्यः
प्रभञ्जनः।
पञ्चविंशतितत्त्वस्थः
पारिजातः परावरः॥27॥
अर्थ:– जिनकी आशा कभी विफल न हो ऐसे
अमोघसंकल्प, जिनका कलेवर कभी नष्ट न हो ऐसे –
नित्यविग्रह, पांचजन्य नामक शंखस्वरूप, वायुस्वरूप अथवा संहारकारी, प्रकृति, महत्तत्त्व (बुद्धि), अहंकार, चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसना, त्वक्, वाक्, पाणि, पायु, पाद, उपस्थ, मन, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन चौबीस जड तत्त्वों सहित
पचीसवें चेतन तत्त्व पुरुष में व्याप्त, याचकों की इच्छा पूर्ण करने में कल्पवृक्ष रूप, कारण कार्यरूप|
सुलभः सुव्रतः शूरो
ब्रह्मवेदनिधिर्निधिः।
वर्णाश्रमगुरुर्वर्णी
शत्रुजिच्छत्रुतापनः॥28॥
अर्थ:– नित्य-निरन्तर चिन्तन करने वाले
एकनिष्ठ श्रद्धालु भक्त को सुगमता से प्राप्त होने वाले, उत्तम व्रतधारी, शौर्य सम्पन्न, ब्रह्मा और वेद के प्रादुर्भाव के
स्थान, जगत-रूपी रत्न के उत्पत्ति स्थान, वर्णों और आश्रमों के गुरु (उपदेष्टा), ब्रह्मचारी, अन्धकासुर आदि शत्रुओं को जीतने वाले, शत्रुओं को संताप देने वाले|
आश्रमः क्षपणः क्षामो
ज्ञानवानचलेश्वरः।
प्रमाणभूतो दुर्ज्ञेयः
सुपर्णो वायुवाहनः॥29॥
अर्थ:– सबके विश्राम स्थान, जन्म-मरण के कष्ट का मूलोच्छेद
करनेवाले, प्रलयकाल में प्रजा को क्षीण करनेवाले, ज्ञानी, पर्वतों अथवा स्थावर पदार्थों के स्वामी, नित्य सिद्ध प्रमाणरूप, कठिनता से जानने योग्य, वेदमय सुन्दर पंखवाले, गरुड़रूप, अपने भय से वायु को प्रवाहित करनेवाले|
धनुर्धरो धनुर्वेदो
गुणराशिर्गुणाकरः।
सत्यः सत्यपरोऽदीनो
धर्माङ्गो धर्मसाधनः॥30॥
अर्थ:- पिनाकधारी, धनुर्वेद के ज्ञाता, अनन्त कल्याणमय गुणों की राशि, सद्गुणों की खानि, सत्यस्वरूप, सत्यपरायण, दीनता से रहित उदार, धर्ममय विग्रह वाले, धर्म का अनुष्ठान करनेवाले|
अनन्तदृष्टिरानन्दो दण्डो
दमयिता दमः।
अभिवाद्यो महामायो
विश्वकर्मविशारदः॥31॥
अर्थ:– असीमित दृष्टिवाले, परमानन्दमय, दुष्टों को दण्ड देनेवाले अथवा
दण्डस्वरूप, दुर्दान्त दानवों का दमन करनेवाले, दमनस्वरूप, प्रणाम करनेयोग्य, मायावियों को भी मोहने वाले महामायावी, संसार की सृष्टि करने में कुशल|
वीतरागो विनीतात्मा तपस्वी
भूतभावनः।
उन्मत्तवेषः प्रच्छन्नो
जितकामोऽजितप्रियः॥32॥
अर्थ:– पूर्णतया विरक्त, मन से विनयशील अथवा मन को वश में
रखनेवाले, तपस्यापरायण, सम्पूर्ण भूतों के उत्पादक एवं रक्षक, पागलों के समान वेष धारण करनेवाले, माया के पर्दे में छिपे हुए, कामविजयी, भगवान विष्णुके प्रेमी|
कल्याणप्रकृतिः कल्पः
सर्वलोकप्रजापतिः।
तरस्वी तारको धीमान् प्रधानः
प्रभुरव्ययः॥33॥
अर्थ:– कल्याणकारी स्वभाववाले, समर्थ, सम्पूर्ण लोकों की प्रजा के पालक, वेगशाली, उद्धारक, विशुद्ध बुद्धि से युक्त, सबसे श्रेष्ठ, सर्वसमर्थ, अविनाशी|
लोकपालोऽन्तर्हितात्मा
कल्पादिः कमलेक्षणः।
वेदशास्त्रार्थतत्त्वज्ञोऽनियमो
नियताश्रयः॥34॥
अर्थ:– समस्त लोकों की रक्षा करनेवाले, अन्तर्यामी आत्मा अथवा अदृश्य स्वरूप वाले, कल्प के आदिकारण, कमल के समान नेत्र वाले, वेदों और शास्त्रों के अर्थ एवं
तत्त्व को जानने वाले,
नियन्त्रण रहित, सबके सुनिश्चित आश्रय स्थान|
चन्द्रः सूर्यः शनिः
केतुर्वराङ्गो विद्रुमच्छविः।
भक्तिवश्यः परब्रह्म
मृगबाणार्पणोऽनघः॥35॥
अर्थ:– चन्द्रमा रूप से आह्लादकारी, सबकी उत्पत्ति के हेतुभूत सूर्य, शनैश्चररूप, केतु नामक ग्रह स्वरूप, सुन्दर शरीरवाले, मूँगे की सी लाल कान्ति वाले, भक्ति के द्वारा भक्त के वश में
होनेवाले, परमात्मा, मृगरूपधारी यज्ञ पर बाण चलाने वाले, पापरहित|
अद्रिरद्र्यालयः कान्तः
परमात्मा जगद्गुरुः।
सर्वकर्मालयस्तुष्टो
मङ्गल्यो मङ्गलावृतः॥36॥
अर्थ:– कैलास आदि पर्वतस्वरूप, कैलास और मन्दर आदि पर्वतों पर निवास
करनेवाले, सबके प्रियतम, परब्रह्म परमेश्वर, समस्त संसार के गुरु, सम्पूर्ण कर्मों के आश्रयस्थान, सदा प्रसन्न, मंगलकारी, मंगलकारिणी शक्ति से संयुक्त|
महातपा दीर्घतपाः स्थविष्ठः
स्थविरो ध्रुवः।
अहःसंवत्सरो व्याप्तिः
प्रमाणं परमं तपः॥37॥
अर्थ:– महान् तपस्वी, दीर्घकाल तक तप करनेवाले, अत्यन्त स्थूल, अति प्राचीन एवं अत्यन्त स्थिर, दिन एवं संवत्सर आदि कालरूप से स्थित, अंश काल स्वरूप, व्यापकता स्वरूप, प्रत्यक्षादि प्रमाणस्वरूप, उत्कृष्ट तपस्या स्वरूप|
संवत्सरकरो मन्त्रप्रत्ययः
सर्वदर्शनः।
अजः सर्वेश्वरः सिद्धो
महारेता महाबलः॥38॥
अर्थ:– संवत्सर आदि काल विभाग के उत्पादक, वेद आदि मन्त्रों से प्रतीत
(प्रत्यक्ष) होने योग्य,
सबके साक्षी, अजन्मा, सबके शासक, सिद्धियों के आश्रय, श्रेष्ठ वीर्यवाले, प्रमथगणों की महती सेना से सम्पन्न|
योगी योग्यो महातेजाः
सिद्धिः सर्वादिरग्रहः।
वसुर्वसुमनाः सत्यः
सर्वपापहरो हरः॥39॥
अर्थ:– सुयोग्य योगी, महान तेज से सम्पन्न, समस्त साधनों के फल, सब भूतों के आदिकारण, इन्द्रियों की ग्रहण शक्ति के अविषय, सब भूतों के वासस्थान, उदार मन वाले, सत्यस्वरूप, समस्त पापों का अपहरण करने के कारण हर
नाम से प्रसिद्ध|
सुकीर्तिशोभनः श्रीमान्
वेदाङ्गो वेदविन्मुनिः।
भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता
लोकनाथो दुराधरः॥40॥
अर्थ:– उत्तम कीर्ति से सुशोभित होनेवाले, विभूतिस्वरूपा उमा से सम्पन्न, वेदरूप अंगोंवाले, वेदों का विचार करने वाले मननशील मुनि, एकरस प्रकाश स्वरूप, ज्ञानियों द्वारा भोगने योग्य अमृत स्वरूप, पुरुषरूप से उपभोग करने वाले, भगवान विश्वनाथ, अजितेन्द्रिय पुरुषों द्वारा जिनकी
आराधना अत्यन्त कठिन है|
अमृतः शाश्वतः शान्तो
बाणहस्तः प्रतापवान्।
कमण्डलुधरो धन्वी अवाङ्मनसगोचरः॥41॥
अर्थ:– सनातन अमृतस्वरूप, शान्तिमय, हाथ में बाण धारण करने वाले प्रतापी
वीर, कमण्डलु धारण करनेवाले, पिनाकधारी, मन और वाणी के अविषय|
अतीन्द्रियो महामायः
सर्वावासश्चतुष्पथः।
कालयोगी महानादो महोत्साहो
महाबलः॥42॥
अर्थ:– इन्द्रियातीत एवं महामायावी, सबके वासस्थान, चारों पुरुषार्थों की सिद्धि के
एकमात्र मार्ग, प्रलय के समय सबको काल से संयुक्त
करनेवाले, गम्भीर शब्द करने वाले अथवा अनाहत
नादरूप, महान उत्साह और बल से सम्पन्न|
महाबुद्धिर्महावीर्यो
भूतचारी पुरंदरः।
निशाचरः प्रेतचारी
महाशक्तिर्महाद्युतिः॥43॥
अर्थ:- श्रेष्ठ बुद्धिवाले, अनन्त पराक्रमी, भूतगणों के साथ विचरने वाले, त्रिपुरसंहारक, रात्रि में विचरण करनेवाले, प्रेतों के साथ भ्रमण करनेवाले, अनन्तशक्ति एवं श्रेष्ठ कान्ति से
सम्पन्न|
अनिर्देश्यवपुः श्रीमान्
सर्वाचार्यमनोगतिः।
बहुश्रुतोऽमहामायो नियतात्मा
ध्रुवोऽध्रुवः॥44॥
अर्थ:– अनिर्वचनीय स्वरूपवाले, ऐश्वर्यवान, सबके लिये अविचार्य मनोगति वाले, बहुज्ञ अथवा सर्वज्ञ, बड़ी-से-बड़ी माया भी जिन पर प्रभाव
नहीं डाल सकती, मन को वश में रखनेवाले, ध्रुव (नित्य कारण) और अध्रुव (अनित्यकार्य) रूप|
ओजस्तेजोद्युतिधरो जनकः
सर्वशासनः।
नृत्यप्रियो नित्यनृत्यः
प्रकाशात्मा प्रकाशकः॥45॥
अर्थ:– ओज (प्राण और बल), तेज (शौर्य आदि गुण) तथा ज्ञान की
दीप्ति को धारण करनेवाले,
सबके उत्पादक, सबके शासक, नृत्य के प्रेमी, प्रतिदिन ताण्डव नृत्य करनेवाले, प्रकाशस्वरूप, सूर्य आदि को भी प्रकाश देनेवाले|
स्पष्टाक्षरो बुधो मन्त्रः
समानः सारसम्प्लवः।
युगादिकृद्युगावर्तो गम्भीरो
वृषवाहनः॥46॥
अर्थ:– ओंकाररूप स्पष्ट अक्षरवाले, ज्ञानवान्, ऋक्, साम और यजुर्वेद के मन्त्रस्वरूप, सबके प्रति समान भाव रखनेवाले, संसारसागर से पार होने के लिये
नौकारूप, युगादि का आरम्भ करनेवाले तथा चारों
युगों को चक्र की तरह घुमानेवाले,
गाम्भीर्य से युक्त, नन्दी नामक वृषभ पर सवार होनेवाले|
इष्टोऽविशिष्टः शिष्टेष्टः
सुलभः सारशोधनः।
तीर्थरूपस्तीर्थनामा
तीर्थदृश्यस्तु तीर्थदः॥47॥
अर्थ:- परमानन्दस्वरूप होने से सर्वप्रिय, सम्पूर्ण विशेषणों से रहित, शिष्ट पुरुषों के इष्टदेव, अनन्यचित्त से निरन्तर स्मरण करनेवाले
भक्तों के लिये सुगमता से प्राप्त होनेयोग्य, सारतत्त्व की खोज करनेवाले, तीर्थस्वरूप, तीर्थनामधारी अथवा जिनका नाम भवसागर से
पार लगानेवाला है,
तीर्थ सेवन से अपने स्वरूप का दर्शन करानेवाले
अथवा गुरु-कृपा से प्रत्यक्ष होनेवाले, चरणोदक स्वरूप तीर्थ को देनेवाले|
अपांनिधिरधिष्ठानं दुर्जयो
जयकालवित्।
प्रतिष्ठितः प्रमाणज्ञो
हिरण्यकवचो हरिः॥48॥
अर्थ:– जल के निधान समुद्ररूप, उपादान-कारणरूप से सब भूतों के आश्रय
अथवा जगत्-रूप प्रपंच के अधिष्ठान, जिनको जीतना कठिन है, विजय के अवसर को समझने वाले, अपनी महिमा में स्थित, प्रमाणों के ज्ञाता, सुवर्णमय कवच धारण करनेवाले, श्रीहरिस्वरूप|
विमोचनः सुरगणो विद्येशो
विन्दुसंश्रयः।
बालरूपोऽबलोन्मत्तोऽविकर्ता
गहनो गुहः॥49॥
अर्थ:– संसारबन्धन से सदा के लिये छुड़ा
देनेवाले, देवसमुदायरूप, सम्पूर्ण विद्याओं के स्वामी, बिन्दुरूप प्रणव के आश्रय, बालक का रूप धारण करनेवाले, बल से उन्मत्त न होनेवाले, विकाररहित, दुर्बोधस्वरूप या अगम्य, माया से अपने यथार्थ स्वरूप को छिपाये
रखनेवाले|
करणं कारणं कर्ता
सर्वबन्धविमोचनः।
व्यवसायो व्यवस्थानः स्थानदो
जगदादिजः॥50॥
अर्थ:– संसार की उत्पत्ति के सबसे बड़े साधन, जगत के उपादान और निमित्त कारण, सबके रचयिता, सम्पूर्ण बन्धनों से छुड़ानेवाले, निश्चयात्मक ज्ञानस्वरूप, सम्पूर्ण जगत की व्यवस्था करनेवाले, ध्रुव आदि भक्तों को अविचल स्थिति
प्रदान कर देनेवाले, हिरण्यगर्भ रूप से जगत के आदि में
प्रकट होनेवाले|
गुरुदो ललितोऽभेदो
भावात्माऽऽत्मनि संस्थितः।
वीरेश्वरो वीरभद्रो
वीरासनविधिर्विराट्॥51॥
अर्थ:– श्रेष्ठ वस्तु प्रदान करनेवाले अथवा
जिज्ञासुओं को गुरु की प्राप्ति करानेवाले, सुन्दर स्वरूपवाले, भेदरहित, सत्स्वरूप आत्मा में प्रतिष्ठित, वीरशिरोमणि, वीरभद्र नामक गणाध्यक्ष, वीरासन से बैठने वाले, अखिल ब्रह्माण्ड स्वरूप|
वीरचूडामणिर्वेत्ता
चिदानन्दो नदीधरः।
आज्ञाधारस्त्रिशूली च
शिपिविष्टः शिवालयः॥52॥
अर्थ:– वीरों में श्रेष्ठ, विद्वान्, विज्ञानानन्द स्वरूप, मस्तक पर गंगाजी को धारण करनेवाले, आज्ञा का पालन करनेवाले, त्रिशूलधारी, तेजोमयी किरणों से व्याप्त, भगवती शिवा के आश्रय|
वालखिल्यो
महाचापस्तिग्मांशुर्बधिरः खगः।
अभिरामः सुशरणः सुब्रह्मण्यः
सुधापतिः॥53॥
अर्थ:– वालखिल्य ऋषिरूप, महान धनुर्धर, सूर्यरूप, लौकिक विषयों की चर्चा न सुननेवाले, आकाशचारी, परम सुन्दर, सबके लिये सुन्दर आश्रयरूप, ब्राह्मणों के परम हितैषी, अमृत कलश के रक्षक|
मघवान्कौशिको गोमान्विरामः
सर्वसाधनः।
ललाटाक्षो विश्वदेहः सारः
संसारचक्रभृत्॥54॥
अर्थ:– कुशिक वंशीय इन्द्रस्वरूप, प्रकाश किरणों से युक्त, समस्त प्राणियों के लय के स्थान, समस्त कामनाओं को सिद्ध करनेवाले, ललाट में तीसरा नेत्र धारण करनेवाले, जगत्स्वरूप, सारतत्त्वरूप, संसार चक्र को धारण करनेवाले|
अमोघदण्डो मध्यस्थो हिरण्यो
ब्रह्मवर्चसी।
परमार्थः परो मायी शम्बरो
व्याघ्रलोचनः॥55॥
अर्थ:– जिनका दण्ड कभी व्यर्थ नहीं जाता
है, उदासीन, सुवर्ण अथवा तेजःस्वरूप, ब्रह्म तेज से सम्पन्न, मोक्षरूप उत्कृष्ट अर्थ की प्राप्ति
करानेवाले, महामायावी, कल्याणप्रद, व्याघ्र के समान भयानक नेत्रोंवाले|
रुचिर्विरञ्चिः
स्वर्बन्धुर्वाचस्पतिरहर्पतिः।
रविर्विरोचनः स्कन्दः शास्ता
वैवस्वतो यमः॥56॥
अर्थ:– दीप्तिरूप, ब्रह्मस्वरूप, स्वर्लोक में बन्धु के समान सुखद, वाणी के अधिपति, दिन के स्वामी सूर्यरूप, समस्त रसों का शोषण करनेवाले, विविध प्रकार से प्रकाश फैलानेवाले, स्वामी कार्तिकेयरूप, सबपर शासन करनेवाले सूर्यकुमार यम|
युक्तिरुन्नतकीर्तिश्च
सानुरागः परञ्जयः।
कैलासाधिपतिः कान्तः सविता
रविलोचनः॥57॥
अर्थ:– अष्टांगयोग स्वरूप तथा ऊर्ध्वलोक में
फैली हुई कीर्ति से युक्त,
भक्तजनों पर प्रेम रखनेवाले,
दूसरों पर विजय पानेवाले,
कैलास के स्वामी, कमनीय अथवा कान्तिमान, समस्त जगत को
उत्पन्न करनेवाले, सूर्यरूप नेत्रवाले|
विद्वत्तमो वीतभयो
विश्वभर्त्तानिवारितः।
नित्यो नियतकल्याणः
पुण्यश्रवणकीर्तनः॥58॥
अर्थ:– विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ, परम विद्वान्, सब प्रकार के भय से रहित, जगत का भरण पोषण करनेवाले, जिन्हें कोई रोक नहीं सकता,
सत्यस्वरूप, सुनिश्चितरूप से कल्याणकारी, जिनके नाम, गुण, महिमा और स्वरूप के श्रवण तथा कीर्तन परम पावन
हैं|
दूरश्रवा विश्वसहो ध्येयो
दुःस्वप्ननाशनः।
उत्तारणो दुष्कृतिहा
विज्ञेयो दुस्सहोऽभवः॥59॥
अर्थ:– सर्वव्यापी होने के कारण दूर की बात
भी सुन लेनेवाले, भक्तजनों के सब अपराधों को कृपापूर्वक
सहन लेनेवाले, ध्यान करनेयोग्य, चिन्तन करने मात्र से बुरे स्वप्नों का
नाश करनेवाले, संसार सागर से पार उतारने वाले, पापों का नाश करनेवाले, जानने के योग्य, जिनके वेग को सहन करना दूसरों के लिये
अत्यन्त कठिन है, संसार बन्धन से रहित अथवा अजन्मा|
अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मीः
किरीटी त्रिदशाधिपः।
विश्वगोप्ता विश्वकर्ता
सुवीरो रुचिराङ्गदः॥60॥
अर्थ:– जिनका कोई आदि नहीं है ऐसे सबके कारणस्वरूप, भूर्लोक और भुवर्लोक की शोभा, मुकुटधारी, देवताओं के स्वामी, जगत के रक्षक, संसार की सृष्टि करनेवाले, श्रेष्ठ वीर, सुन्दर बाजूबंद धारण करनेवाले|
जननो जनजन्मादिः
प्रीतिमान्नीतिमान्धवः।
वसिष्ठः कश्यपो भानुर्भीमो
भीमपराक्रमः॥61॥
अर्थ:-– प्राणिमात्र को जन्म देनेवाले, जन्म लेने वालों के जन्म के मूल कारण, प्रसन्न, सदा नीतिपरायण, सबके स्वामी, मन और इन्द्रियों को अत्यन्त वश में
रखनेवाले अथवा वसिष्ठ ऋषिरूप,
द्रष्टा अथवा कश्यप मुनिरूप,
प्रकाशमान अथवा सूर्यरूप,
दुष्टों को भय देनेवाले,
अतिशय भयदायक पराक्रम से युक्त|
प्रणवः सत्पथाचारो महाकोशो
महाधनः।
जन्माधिपो महादेवः
सकलागमपारगः॥62॥
अर्थ:– ओंकारस्वरूप, सत्पुरुषों के मार्ग पर चलनेवाले, अन्नमयादि पाँचों कोशों को अपने भीतर
धारण करने के कारण महाकोशरूप,
अपरिमित ऐश्वर्यवाले अथवा कुबेर को भी धन देने के कारण महाधनवान्, जन्म (उत्पादन) रूपी कार्य के अध्यक्ष
ब्रह्मा, सर्वोत्कृष्ट देवता, समस्त शास्त्रों के पारंगत विद्वान|
तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा
विभुर्विश्वविभूषणः।
ऋषिर्ब्राह्मण
ऐश्वर्यजन्ममृत्युजरातिगः॥63॥
अर्थ:– यथार्थ तत्त्वरूप, यथार्थ तत्त्व को पूर्णतया जाननेवाले, अद्वितीय आत्मरूप, सर्वत्र व्यापक, सम्पूर्ण जगत को उत्तम गुणों से
विभूषित करनेवाले, मन्त्रद्रष्टा, ब्रह्मवेत्ता, ऐश्वर्य, जन्म, मृत्यु और जरा से अतीत|
पञ्चयज्ञसमुत्पत्तिर्विश्वेशो
विमलोदयः।
आत्मयोनिरनाद्यन्तो वत्सलो
भक्तलोकधृक्॥64॥
अर्थ:– पंच महायज्ञों की उत्पत्ति के हेतु, विश्वनाथ, निर्मल अभ्युदय की प्राप्ति करानेवाले
धर्मरूप, स्वयम्भू, आदि अन्त से रहित, भक्तों के प्रति वात्सल्य स्नेह से
युक्त, भक्तजनों के आश्रय|
गायत्रीवल्लभः
प्रांशुर्विश्वावासः प्रभाकरः।
शिशुर्गिरिरतः सम्राट् सुषेणः
सुरशत्रुहा॥65॥
अर्थ:– गायत्री मन्त्र के प्रेमी, ऊँचे शरीर वाले, सम्पूर्ण जगत के आवास स्थान, सूर्यरूप, बालकरूप, कैलास पर्वत पर रमण करनेवाले, देवेश्वरों के भी ईश्वर, प्रमथगणों की सुन्दर सेना से युक्त
तथा देव शत्रुओं का संहार करनेवाले|
अमोघोऽरिष्टनेमिश्च कुमुदो
विगतज्वरः।
स्वयंज्योतिस्तनुज्योतिरात्मज्योतिरचञ्चलः॥66॥
अर्थ:– अमोघ संकल्प वाले महर्षि कश्यपरूप, भूतल को आह्लाद प्रदान करने वाले
चन्द्रमारूप, चिन्तारहित, अपने ही प्रकाश से प्रकाशित होने वाले
सूक्ष्मज्योति स्वरूप,
अपने स्वरूपभूत ज्ञान की प्रभा से प्रकाशित, चंचलता से रहित|
पिङ्गलः
कपिलश्मश्रुर्भालनेत्रस्त्रयीतनुः।
ज्ञानस्कन्दो
महानीतिर्विश्वोत्पत्तिरुपप्लवः॥67॥
अर्थ:– पिंगलवर्ण वाले, कपिल वर्ण की दाढ़ी-मूँछ रखने वाले
दुर्वासा मुनि के रूप में अवतीर्ण, ललाट में तृतीय नेत्र धारण करनेवाले, तीनों लोक या तीनों वेद जिनके स्वरूप
हैं, ज्ञानप्रद और श्रेष्ठ नीतिवाले, जगत के उत्पादक, संहारकारी|
भगो विवस्वानादित्यो योगपारो
दिवस्पतिः।
कल्याणगुणनामा च पापहा
पुण्यदर्शनः॥68॥
अर्थ:– अदितिनन्दन भग एवं विवस्वान्, योगविद्या में पारंगत, स्वर्गलोक के स्वामी, कल्याणकारी गुण और नामवाले, पापनाशक, पुण्यजनक दर्शनवाले अथवा पुण्य से ही
जिनका दर्शन होता है|
उदारकीर्तिरुद्योगी सद्योगी
सदसन्मयः।
नक्षत्रमाली नाकेशः
स्वाधिष्ठानपदाश्रयः॥69॥
अर्थ:– उत्तम कीर्तिवाले, उद्योगशील, श्रेष्ठ योगी, सदसत्स्वरूप, नक्षत्रों की माला से अलंकृत आकाशरूप, स्वर्ग के स्वामी, स्वाधिष्ठान चक्र के आश्रय|
पवित्रः पापहारी च मणिपूरो
नभोगतिः।
हृत्पुण्डरीकमासीनः शक्रः
शान्तो वृषाकपिः॥70॥
अर्थ:– नित्य शुद्ध एवं पापनाशक, मणिपूर नामक चक्रस्वरूप, आकाशचारी, हृदय कमल में स्थित, इन्द्ररूप, शान्त-स्वरूप, हरिहर|
उष्णो गृहपतिः कृष्णः
समर्थोऽनर्थनाशनः।
अधर्मशत्रुरज्ञेयः पुरुहूतः
पुरुश्रुतः॥71॥
अर्थ:– हालाहल विष की गर्मी से उष्णता युक्त, समस्त ब्रह्माण्ड रूपी गृह के स्वामी, सच्चिदानन्दस्वरूप, सामर्थ्यशाली, अनर्थ का नाश करनेवाले, अधर्म नाशक, बुद्धि की पहुँच से परे अथवा जानने में
न आनेवाले, बहुत से नामों द्वारा पुकारे और सुने
जानेवाले|
ब्रह्मगर्भो बृहद्गर्भो
धर्मधेनुर्धनागमः।
जगद्धितैषी सुगतः कुमारः
कुशलागमः॥72॥
अर्थ:– ब्रह्मा जिनके गर्भस्थ शिशु के समान
है, विश्व ब्रह्माण्ड प्रलयकाल में जिनके
गर्भ में रहता है, धर्मरूपी वृषभ को उत्पन्न करने के
लिये धेनुस्वरूप, अनकी प्राप्ति करानेवाले, समस्त संसार का हित चाहनेवाले, उत्तम ज्ञान से सम्पन्न अथवा
बुद्धस्वरूप, कार्तिकेयरूप, कल्याणदाता|
हिरण्यवर्णो
ज्योतिष्मान्नानाभूतरतो ध्वनिः।
अरागो नयनाध्यक्षो
विश्वामित्रो धनेश्वरः॥73॥
अर्थ:– सुवर्ण के समान गौरवर्ण वाले तथा
तेजस्वी, नाना प्रकार के भूतों के साथ क्रीडा
करनेवाले, नादस्वरूप, आसक्तिशून्य, नेत्रों में द्रष्टारूप से विद्यमान, सम्पूर्ण जगत के प्रति मैत्री भावना
रखनेवाले मुनिस्वरूप, धन
के स्वामी कुबेर|
ब्रह्मज्योतिर्वसुधामा
महाज्योतिरनुत्तमः।
मातामहो मातरिश्वा
नभस्वान्नागहारधृक्॥74॥
अर्थ:- ज्योति स्वरूप ब्रह्म, सुवर्ण और रत्नों के तेज से प्रकाशित
अथवा वसुधास्वरूप, सूर्य आदि ज्योतियों के प्रकाशक
सर्वोत्तम महाज्योति स्वरूप,
मातृकाओं के जन्मदाता होने के कारण मातामह, आकाश में विचरनेवाले वायुदेव, सर्पमय हार धारण करनेवाले|
पुलस्त्यः पुलहोऽगस्त्यो
जातूकर्ण्यः पराशरः।
निरावरणनिर्वारो वैरञ्च्यो
विष्टरश्रवाः॥75॥
अर्थ:– पुलस्त्य नामक मुनि, पुलह नामक ऋषि, कुम्भ जन्मा अगस्त्य ऋषि, इसी नाम से प्रसिद्ध मुनि, शक्ति के पुत्र तथा व्यासजी के पिता
मुनिवर पराशर, आवरणशून्य तथा अवरोध रहित, ब्रह्माजी के पुत्र नीललोहित रुद्र, विस्तृत यशवाले विष्णुस्वरूप|
आत्मभूरनिरुद्धोऽत्रिर्ज्ञानमूर्तिर्महायशाः।
लोकवीराग्रणीर्वीरश्चण्डः
सत्यपराक्रमः॥76॥
अर्थ:– स्वयम्भू ब्रह्मा, अकुण्ठित गतिवाले, अत्रि नामक ऋषि अथवा त्रिगुणातीत, ज्ञानस्वरूप, महायशस्वी, विश्व विख्यात वीरों में अग्रगण्य, शूरवीर, प्रलय के समय अत्यन्त क्रोध करनेवाले, सच्चे पराक्रमी|
व्यालाकल्पो महाकल्पः
कल्पवृक्षः कलाधरः।
अलंकरिष्णुरचलो
रोचिष्णुर्विक्रमोन्नतः॥77॥
अर्थ:– सर्पों के आभूषण से श्रृंगार करनेवाले, महाकल्प संज्ञक काल स्वरूप वाले, शरणागतों की इच्छा पूर्ण करने के लिये
कल्पवृक्ष के समान उदार,
चन्द्रकलाधारी, अलंकार धारण करने या करानेवाले, विचलित न होनेवाले, प्रकाशमान, पराक्रम में बढ़े-चढ़े|
आयुः शब्दपतिर्वेगी प्लवनः
शिखिसारथिः।
असंसृष्टोऽतिथिः शक्रप्रमाथी
पादपासनः॥78॥
अर्थ:– आयु तथा वाणी के स्वामी, वेगशाली तथा कूदने या तैरनेवाले, अग्निरूप सहायक वाले, निर्लेप, प्रेमी भक्तों के घर पर अतिथि की
भाँति उपस्थित हो उनका सत्कार ग्रहण करनेवाले, इन्द्र का मान मर्दन करनेवाले, वृक्षों पर या वृक्षों के नीचे आसन
लगानेवाले|
वसुश्रवा हव्यवाहः प्रतप्तो
विश्वभोजनः।
जप्यो जरादिशमनो लोहितात्मा
तनूनपात्॥79॥
अर्थ:– यशरूपी धन से सम्पन्न, अग्निस्वरूप, सूर्यरूप से प्रचण्ड ताप देनेवाले, प्रलयकाल में विश्व ब्रह्माण्ड को
अपना ग्रास बना लेनेवाले,
जपने योग्य नाम वाले,
बुढ़ापा आदि दोषों का निवारण करनेवाले, लोहित वर्ण वाले अग्निरूप|
बृहदश्वो नभोयोनिः
सुप्रतीकस्तमिस्रहा।
निदाघस्तपनो मेघः स्वक्षः
परपुरञ्जयः॥80॥
अर्थ:– विशाल अश्ववाले, आकाश की उत्पत्ति के स्थान, सुन्दर शरीर वाले, अज्ञानान्धकार नाशक, तपने वाले ग्रीष्म रूप, बादलों से उपलक्षित वर्षारूप, सुन्दर नेत्रों वाले, त्रिपुर रूप शत्रुनगरी पर विजय
पानेवाले|
सुखानिलः सुनिष्पन्नः सुरभिः
शिशिरात्मकः।
वसन्तो माधवो ग्रीष्मो
नभस्यो बीजवाहनः॥81॥
अर्थ:– सुखदायक वायु को प्रकट करनेवाले
शरत्कालरूप, जिसमें अन्न का सुन्दररूप से परिपाक
होता है
वह
हेमन्तकाल रूप, सुगन्धित मलयानिल से युक्त शिशिर ऋतुरूप, चैत्र वैशाख (इन दो मासों से युक्त वसन्तरूप), ग्रीष्म ऋतुरूप, भाद्रपद मासरूप, धान आदि के बीजों की प्राप्ति कराने वाला
शरत्काल|
अङ्गिरा गुरुरात्रेयो विमलो
विश्ववाहनः।
पावनः
सुमतिर्विद्वांस्त्रैविद्यो वरवाहनः॥82॥
अर्थ:– अंगिरा नामक ऋषि तथा उनके पुत्र
देवगुरु बृहस्पति, अत्रिकुमार दुर्वासा, निर्मल, सम्पूर्ण जगत का निर्वाह करानेवाले, पवित्र करनेवाले, उत्तम बुद्धिवाले विद्वान्, तीनों वेदों के विद्वान् अथवा तीनों
वेदों के द्वारा प्रतिपादित,
वृषभ रूप श्रेष्ठ वाहनवाले|
मनोबुद्धिरहङकारः
क्षेत्रज्ञः क्षेत्रपालकः।
जमदग्निर्बलनिधिर्विगालो
विश्वगालवः॥83॥
अर्थ:– मन, बुद्धि और अहंकारस्वरूप, आत्मा, शरीररूपी क्षेत्र का पालन करनेवाले परमात्मा, जमदग्नि नामक ऋषिरूप, अनन्त बल के सागर, अपनी जटा से गंगाजी के जल को
टपकानेवाले, विश्वविख्यात गालव मुनि अथवा प्रलयकाल
में कालाग्निस्वरूप से जगत को निगल जानेवाले|
अघोरोऽनुत्तरो यज्ञः
श्रेष्ठो निःश्रेयसप्रदः।
शैलो गगनकुन्दाभो
दानवारिररिंदमः॥84॥
अर्थ:– सौम्यरूपवाले, सर्वश्रेष्ठ, श्रेष्ठ यज्ञरूप, कल्याणदाता, शिलामय लिंगरूप, आकाशकुन्द चन्द्रमा के समान गौर
कान्तिवाले, दानव-शत्रु, शत्रुओं का दमन करनेवाले|
रजनीजनकश्चारु-र्निःशल्यो
लोकशल्यधृक्।
चतुर्वेद-श्चतुर्भाव-श्चतुरश्चतुरप्रियः॥85॥
अर्थ:- सुन्दर निशाकर-रूप, निष्कण्टक, शरणागतजनोंके शोक-शल्यको निकालकर
स्वयं धारण करनेवाला, चारों वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य, चारों पुरुषार्थोंकी प्राप्ति
करानेवाले, चतुर एवं चतुर पुरुषोंके प्रिय|
आम्नायोऽथ समाम्नाय-स्तीर्थदेवशिवालयः।
बहुरूपो महारूपः
सर्वरूपश्चराचरः॥86॥
अर्थ:- वेदस्वरूप, अक्षरसमाम्नाय (शिवसूत्ररूप), तीर्थोंके देवता और शिवालयरूप, अनेक रूपवाले, विराट्-रूपधारी, चर और अचर सम्पूर्ण रूपवाले|
न्यायनिर्मायको न्यायी
न्यायगम्यो निरञ्जनः।
सहस्रमूर्द्धा देवेन्द्रः
सर्वशस्त्रप्रभञ्जनः॥87॥
अर्थ:- न्यायकर्ता तथा न्यायशील, न्याययुक्त आचरणसे प्राप्त होनेयोग्य, निर्मल, सहस्रों सिरवाले, देवताओंके स्वामी, विपक्षी योद्धाओंके सम्पूर्ण
शस्त्रोंको नष्ट कर देनेवाले|
मुण्डो विरूपो विक्रान्तो
दण्डी दान्तो गुणोत्तमः।
पिङ्गलाक्षो जनाध्यक्षो
नीलग्रीवो निरामयः॥88॥
अर्थ:- मुँड़े हुए सिरवाले संन्यासी, विविध रूपवाले, विक्रमशील, दण्डधारी, मन और इन्द्रियोंका दमन करनेवाले, गुणोंमें सबसे श्रेष्ठ, पिंगल नेत्रवाले, जीवमात्रके साक्षी, नीलकण्ठ, नीरोग|
सहस्रबाहुः सर्वेशः शरण्यः
सर्वलोकधृक्।
पद्मासनः परं ज्योतिः
पारम्पर्य्यफलप्रदः॥89॥
अर्थ:- सहस्रों भुजाओं से युक्त, सबके स्वामी, शरणागत हितैषी, सम्पूर्ण लोकों को धारण करनेवाले, कमल के आसन पर विराजमान, परम प्रकाशस्वरूप, परम्परागत फल की प्राप्ति करानेवाले|
पद्मगर्भो महागर्भो
विश्वगर्भो विचक्षणः।
परावरज्ञो वरदो वरेण्यश्च
महास्वनः॥90॥
अर्थ:- अपनी नाभि से कमल को प्रकट करने वाले
विष्णुरूप, विराट् ब्रह्माण्ड को गर्भ में धारण
करने के कारण महान् गर्भवाले,
सम्पूर्ण जगत् को अपने उदर में धारण करने वाला, चतुर, कारण और कार्य के ज्ञाता, अभीष्ट वर देने वाले, वरणीय अथवा श्रेष्ठ, डमरू का गम्भीर नाद करने वाले|
देवासुरगुरुर्देवो
देवासुरनमस्कृतः।
देवासुरमहामित्रो
देवासुरमहेश्वरः॥91॥
अर्थ:- देवताओं तथा असुरों के गुरुदेव एवं
आराध्य, देवताओं तथा असुरों से वन्दित, देवता तथा असुर दोनों के बड़े मित्र, देवताओं और असुरों के महान् ईश्वर|
देवासुरेश्वरो दिव्यो
देवासुरमहाश्रयः।
देवदेवमयोऽचिन्त्यो
देवदेवात्मसम्भवः॥92॥
अर्थ:- देवताओं और असुरों के शासक, अलौकिक स्वरूप वाले, देवताओं और असुरों के महान् आश्रय, देवताओं के लिये भी देवतारूप, चित्त की सीमा से परे विद्यमान, देवाधि-देव ब्रह्माजी से रुद्ररूप में
उत्पन्न|
सद्योनिरसुरव्याघ्रो
देवसिंहो दिवाकरः।
विबुधाग्रचरश्रेष्ठः
सर्वदेवोत्तमोत्तमः॥93॥
अर्थ:- सत्पदार्थों की उत्पत्ति के हेतु, असुरों का विनाश करने के लिये
व्याघ्ररूप, देवताओं में श्रेष्ठ, सूर्यरूप, देवताओं के नायकों में सर्वश्रेष्ठ, सम्पूर्ण श्रेष्ठ देवताओं के भी
शिरोमणि|
शिवज्ञानरतः
श्रीमाच्छिखिश्रीपर्वतप्रियः।
वज्रहस्तः सिद्धखड्गो
नरसिंहनिपातनः॥94॥
अर्थ:- कल्याणमय शिव-तत्त्व के विचार में
तत्पर, अणिमा आदि विभूतियों से सम्पन्न, कुमार कार्तियकेय के निवास भूत
श्रीशैल नामक पर्वत से प्रेम करने वाले, वज्रधारी इन्द्ररूप, शत्रुओं को मार गिराने में जिनकी
तलवार कभी असफल नहीं होती, ऐसे
शरभरूप से नृसिंह को धराशायी करने वाले|
ब्रह्मचारी लोकचारी धर्मचारी
धनाधिपः।
नन्दी नन्दीश्वरोऽनन्तो
नग्नव्रतधरः शुचिः॥95॥
अर्थ:– भगवती उमा के प्रेम की परीक्षा लेने के
लिये ब्रह्मचारीरूप से प्रकट,
समस्त लोकों में विचरने वाले,
धर्म का आचरण करने वाले, धन
के अधिपति कुबेर, नन्दी नामक गण, इसी नाम से प्रसिद्ध वृषभ, अन्तरहित, दिगम्बर रहने का व्रत धारण करने वाले, नित्यशुद्ध|
लिङ्गाध्यक्षः सुराध्यक्षो
योगाध्यक्षो युगावहः।
स्वधर्मा स्वर्गतः
स्वर्गस्वरः स्वरमयस्वनः॥96॥
अर्थ:– लिंगदेह के द्रष्टा, देवताओं के अधिपति, योगेश्वर, युग के निर्वाहक, आत्मविचार रूप धर्म में स्थित अथवा
स्वधर्म परायण, स्वर्गलोक में स्थित, स्वर्गलोक में जिन के यश का गान किया
जाता है, ऐसे सात प्रकार के स्वरों से युक्त
ध्वनि वाले|
बाणाध्यक्षो बीजकर्ता
धर्मकृद्धर्मसम्भवः।
दम्भोऽलोभोऽर्थविच्छम्भुः
सर्वभूतमहेश्वरः॥97॥
अर्थ:- बाणासुर के स्वामी अथवा बाणलिंग
नर्मदेश्वर में अधिदेवतारूप से स्थित, बीज के उत्पादक, धर्म के पालक और उत्पादक, मायामयरूपधारी, लोभरहित, सबके प्रयोजन को जानने वाले कल्याण निकेतन
शिव, सम्पूर्ण प्राणियों के परमेश्वर|
श्मशाननिलयस्त्र्यक्षः
सेतुरप्रतिमाकृतिः।
लोकोत्तरस्फुटालोकस्त्र्यम्बको
नागभूषणः॥98॥
अर्थ:- श्मशानवासी, त्रिनेत्रधारी, धर्ममर्यादा के पालक, अनुपम रूपवाले, अलौकिक एवं सुस्पष्ट प्रकाश से युक्त, त्रिनेत्रधारी अथवा त्र्यम्बक नामक
ज्योतिर्लिंग, नागहार से विभूषित|
अन्धकारिर्मखद्वेषी
विष्णुकन्धरपातनः।
हीनदोषोऽक्षयगुणो दक्षारिः
पूषदन्तभित्॥99॥
अर्थ:- अन्धकासुर का वध करनेवाले, दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करनेवाले, यज्ञमय विष्णु का गला काटनेवाले, दोषरहित, अविनाशी गुणों से सम्पन्न, दक्षद्रोही, पूषा देवता के दाँत तोड़नेवाले|
धूर्जटिः खण्डपरशुः सकलो
निष्कलोऽनघः।
अकालः सकलाधारः पाण्डुराभो
मृडो नटः॥100॥
अर्थ:- जटा के भार से विभूषित, खण्डित परशुवाले, साकार एवं निराकार परमात्मा, पाप के स्पर्श से शून्य, काल के प्रभाव से रहित, सबके आधार, श्वेत कान्तिवाले, सुखदायक एवं ताण्डवनृत्यकारी|
पूर्णः पूरयिता पुण्यः
सुकुमारः सुलोचनः।
सामगेयप्रियोऽक्रूरः
पुण्यकीर्तिरनामयः॥101॥
अर्थ:– सर्वव्यापी परब्रह्म परमात्मा, भक्तों की अभिलाषा पूर्ण करनेवाले, परम पवित्र, सुन्दर कुमार हैं जिनके, ऐसे सुन्दर नेत्रवाले, सामगान के प्रेमी, क्रूरतारहित, पवित्र कीर्तिवाले, रोग-शोक से रहित|
मनोजवस्तीर्थकरो जटिलो
जीवितेश्वरः।
जीवितान्तकरो नित्यो वसुरेता
वसुप्रदः॥102॥
अर्थ:- मन के समान वेगशाली, तीर्थों के निर्माता, जटाधारी, सबके प्राणेश्वर, प्रलयकाल में सबके जीवन का अन्त
करनेवाले, सनातन, सुवर्णमय वीर्यवाले, धनदाता|
सद्गतिः सत्कृतिः सिद्धिः
सज्जातिः खलकण्टकः।
कलाधरो महाकालभूतः
सत्यपरायणः॥103॥
अर्थ:– सत्पुरुषों के आश्रय, शुभ कर्म करनेवाले, सिद्धिस्वरूप, सत्पुरुषों के जन्मदाता, दुष्टों के लिये कण्टकरूप, कलाधारी, महाकाल नामक ज्योतिर्लिंगस्वरूप अथवा
काल के भी काल होने से महाकाल, सत्यनिष्ठ|
लोकलावण्यकर्ता च
लोकोत्तरसुखालयः।
चन्द्रसंजीवनः शास्ता
लोकगूढो महाधिपः॥104॥
अर्थ:– सब लोगों को सौन्दर्य प्रदान करनेवाले, लोकोत्तर सुख के आश्रय, सोमनाथरूप से चन्द्रमा को जीवन प्रदान
करनेवाले सर्वशासक शिव,
समस्त संसार में अव्यक्तरूप से व्यापक, महेश्वर|
लोकबन्धुर्लोकनाथः कृतज्ञः
कीर्तिभूषणः।
अनपायोऽक्षरः कान्तः
सर्वशस्त्रभृतां वरः॥105॥
अर्थ:– सम्पूर्ण लोकों के बन्धु एवं रक्षक, उपकार को माननेवाले, उत्तम यश से विभूषित, विनाशरहित (अविनाशी), प्रजापति दक्ष का अन्त करनेवाले, सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ|
तेजोमयो द्युतिधरो
लोकानामग्रणीरणुः।
शुचिस्मितः प्रसन्नात्मा
दुर्जेयो दुरतिक्रमः॥106॥
अर्थ:– तेजस्वी और कान्तिमान्, सम्पूर्ण जगत् के लिये अग्रगण्य
देवता अथवा जगत् को आगे बढ़ानेवाले, अत्यन्त सूक्ष्म, पवित्र मुसकान वाले, हर्ष भरे हृदयवाले, जिन पर विजय पाना अत्यन्त कठिन है, दुर्लङ्घ्य|
ज्योतिर्मयो जगन्नाथो
निराकारो जलेश्वरः।
तुम्बवीणो महाकोपो विशोकः
शोकनाशनः॥107॥
अर्थ:– तेजोमय, विश्वनाथ, आकार रहित परमात्मा, जल के स्वामी, तूँबी की वीणा बजाने वाले, संहार के समय महान क्रोध करनेवाले, शोकरहित, शोक का नाश करनेवाले|
त्रिलोकपस्त्रिलोकेशः
सर्वशुद्धिरधोक्षजः।
अव्यक्तलक्षणो देवो
व्यक्ताव्यक्तो विशाम्पतिः॥108॥
अर्थ:– तीनों लोकों का पालन करनेवाले, त्रिभुवन के स्वामी, सबकी शुद्धि करनेवाले, इन्द्रियों और उनके विषयों से अतीत, अव्यक्त लक्षण वाले देवता, स्थूलसूक्ष्मरूप, प्रजाओं के पालक|
वरशीलो वरगुणः सारो मानधनो
मयः।
ब्रह्मा विष्णुः प्रजापालो
हंसो हंसगतिर्वयः॥109॥
अर्थ:– श्रेष्ठ स्वभाव वाले, उत्तम गुणोंवाले, सारतत्त्व, स्वाभिमान के धनी, सुखस्वरूप, सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, प्रजापालक विष्णु, सूर्यस्वरूप, हंस के समान चालवाले, गरुड़ पक्षी|
वेधा विधाता धाता च स्रष्टा
हर्ता चतुर्मुखः।
कैलासशिखरावासी सर्वावासी
सदागतिः॥110॥
अर्थ:– ब्रह्मा, धाता और विधाता नामक देवतास्वरूप, सृष्टिकर्ता, संहारकारी, चार मुखवाले ब्रह्मा, कैलास के शिखर पर निवास करनेवाले, सर्वव्यापी, निरन्तर गतिशील वायुदेवता|
हिरण्यगर्भो द्रुहिणो
भूतपालोऽथ भूपतिः।
सद्योगी योगविद्योगी वरदो
ब्राह्मणप्रियः॥111॥
अर्थ:- ब्रह्मा, ब्रह्मा, प्राणियों का पालन करनेवाले, पृथ्वी के स्वामी, श्रेष्ठ योगी, योगविद्या के ज्ञाता योगी, वर देनेवाले, ब्राह्मणों के प्रेमी|
देवप्रियो देवनाथो देवज्ञो
देवचिन्तकः।
विषमाक्षो विशालाक्षो वृषदो
वृषवर्धनः॥112॥
अर्थ:– देवताओं के प्रिय तथा रक्षक, देवतत्त्व के ज्ञाता, देवताओं का विचार करनेवाले, विषम नेत्रवाले, बड़े-बड़े नेत्रवाले, धर्म का दान और वृद्धि करनेवाले|
निर्ममो निरहङ्कारो निर्मोहो
निरुपद्रवः।
दर्पहा दर्पदो दृप्तः
सर्वर्तुपरिवर्तकः॥113॥
अर्थ:– ममतारहित, अहंकारशून्य, मोहशून्य, उपद्रव या उत्पात से दूर, दर्प का हनन और खण्डन करनेवाले, स्वाभिमानी, समस्त ऋतुओं को बदलते रहनेवाले|
सहस्रजित् सहस्रार्चिः
स्निग्धप्रकृतिदक्षिणः।
भूतभव्यभवन्नाथः प्रभवो
भूतिनाशनः॥114॥
अर्थ:– सहस्रों पर विजय पानेवाले, सहस्रों किरणों से प्रकाशमान सूर्यरूप, स्नेहयुक्त स्वभाववाले तथा उदार, भूत, भविष्य और वर्तमान के स्वामी, सबकी उत्पत्ति के कारण, दुष्टों के ऐश्वर्य का नाश करनेवाले|
अर्थोऽनर्थो महाकोशः
परकार्यैकपण्डितः।
निष्कण्टकः कृतानन्दो
निर्व्याजो व्याजमर्दनः॥115॥
अर्थ:- अर्थ, परमपुरुषार्थरूप, प्रयोजनरहित, अनन्त धनराशि के स्वामी, पराये कार्य को सिद्ध करने की कला के
एकमात्र विद्वान्, कण्टकरहित, नित्यसिद्ध आनन्दस्वरूप, स्वयं कपटरहित होकर दूसरे के कपट को
नष्ट करनेवाले|
सत्त्ववान्सात्त्विकः
सत्यकीर्तिः स्नेहकृतागमः।
अकम्पितो गुणग्राही नैकात्मा
नैककर्मकृत्॥116॥
अर्थ:- सत्त्वगुण से युक्त, सत्त्वनिष्ठ, सत्यकीर्ति वाले, जीवों के प्रति स्नेह के कारण विभिन्न
आगमों को प्रकाश में लानेवाले,
सुस्थिर, गुणों का आदर करनेवाले, अनेकरूप होकर अनेक प्रकार के कर्म
करनेवाले|
सुप्रीतः सुमुखः सूक्ष्मः
सुकरो दक्षिणानिलः।
नन्दिस्कन्धधरो धुर्यः
प्रकटः प्रीतिवर्धनः॥117॥
अर्थ:– अत्यन्त प्रसन्न, सुन्दर मुखवाले, स्थूलभाव से रहित, सुन्दर हाथवाले, मलयानिल के समान सुखद, नन्दी की पीठपर सवार होनेवाले, उत्तरदायित्व का भार वहन करने में
समर्थ, भक्तों के सामने प्रकट होनेवाले अथवा
ज्ञानियों के सामने नित्य प्रकट,
प्रेम बढ़ानेवाले|
अपराजितः सर्वसत्त्वो
गोविन्दः सत्त्ववाहनः।
अधृतः स्वधृतः सिद्धः
पूतमूर्तिर्यशोधनः॥118॥
अर्थ:– किसी से परास्त न होनेवाले, सम्पूर्ण सत्त्वगुण के आश्रय अथवा
समस्त प्राणियों की उत्पत्ति के हेतु, गोलोक की प्राप्ति कराने वाले, सत्त्वस्वरूप धर्ममय वृषभ से वाहन का
काम लेने वाले, आधाररहित, अपने-आप में ही स्थित, नित्यसिद्ध, पवित्र शरीरवाले, सुयश के धनी|
वाराहशृङ्गधृक्छृङ्गी
बलवानेकनायकः।
श्रुतिप्रकाशः
श्रुतिमानेकबन्धुरनेककृत्॥119॥
अर्थ:– वाराह को मारकर उसके दाढ़रूपी शृंगों को
धारण करने के कारण शृंगी नाम से प्रसिद्ध, शक्तिशाली, अद्वितीय नेता, वेदों को प्रकाशित करनेवाले, वेदज्ञान से सम्पन्न, सबके एकमात्र सहायक, अनेक प्रकार के पदार्थों की सृष्टि
करनेवाले|
श्रीवत्सलशिवारम्भः
शान्तभद्रः समो यशः।
भूशयो भूषणो भूतिर्भूतकृद्
भूतभावनः॥120॥
अर्थ:– श्रीवत्सधारी विष्णु के लिये मंगलकारी, शान्त एवं मंगलरूप, सर्वत्र समभाव रखनेवाले, यशस्वरूप, पृथ्वी पर शयन करनेवाले, सबको विभूषित करनेवाले, कल्याणस्वरूप, प्राणियों की सृष्टि करनेवाले, भूतों के उत्पादक|
अकम्पो भक्तिकायस्तु कालहा
नीललोहितः।
सत्यव्रतमहात्यागी
नित्यशान्तिपरायणः॥121॥
अर्थ:– कम्पित न होनेवाले, भक्तिस्वरूप, कालनाशक, नील और लोहितवर्णवाले, सत्यव्रतधारी एवं महान् त्यागी, निरन्तर शान्त|
परार्थवृत्तिर्वरदो
विरक्तस्तु विशारदः।
शुभदः शुभकर्ता च शुभनामा
शुभः स्वयम्॥122॥
अर्थ:– परोपकारव्रती एवं अभीष्ट वरदाता, वैराग्यवान्, विज्ञानवान्, शुभ देने और करनेवाले, स्वयं शुभस्वरूप होने के कारण शुभ
नामधारी|
अनर्थितोऽगुणः साक्षी
ह्यकर्ता कनकप्रभः।
स्वभावभद्रो मध्यस्थः
शत्रुघ्नो विघ्ननाशनः॥123॥
अर्थ:– याचनारहित, निर्गुण, द्रष्टा एवं कर्तृत्वरहित, सुवर्ण के समान कान्तिमान्, स्वभावतः कल्याणकारी, उदासीन, शत्रुनाशक, विघ्नों का निवारण करनेवाले|
शिखण्डी कवची शूली जटी मुण्डी
च कुण्डली।
अमृत्युः सर्वदृक्सिंहस्तेजोराशिर्महामणिः॥124॥
अर्थ:– मोरपंख, कवच और त्रिशूल धारण करनेवाले, जटा, मुण्डमाला और कवच धारण करनेवाले, मृत्युरहित, सर्वज्ञों में श्रेष्ठ, तेजः पुंज महामणि कौस्तुभादिरूप|
असंख्येयोऽप्रमेयात्मा
वीर्यवान् वीर्यकोविदः।
वेद्यश्चैव वियोगात्मा
परावरमुनीश्वरः॥125॥
अर्थ:– असंख्य नाम, रूप और गुणों से युक्त होने के कारण
किसी के द्वारा मापे न जा सकनेवाले, पराक्रमी एवं पराक्रम के ज्ञाता, जाननेयोग्य, दीर्घकाल तक सतीके वियोग में अथवा
विशिष्ट योग की साधना में संलग्न हुए मनवाले, भूत और भविष्य के ज्ञाता मुनीश्वररूप|
अनुत्तमो दुराधर्षो
मधुरप्रियदर्शनः।
सुरेशः शरणं सर्वः
शब्दब्रह्म सतां गतिः॥126॥
अर्थ:– सर्वोत्तम एवं दुर्जय, जिनका दर्शन मनोहर एवं प्रिय लगता है, देवताओं के ईश्वर, आश्रयदाता, सर्वस्वरूप, प्रणवरूप तथा सत्पुरुषों के आश्रय|
कालपक्षः कालकालः
कङ्कणीकृतवासुकिः।
महेष्वासो महीभर्ता निष्कलङको
विशृङ्खलः॥127॥
अर्थ:– काल जिनका सहायक है काल के भी काल, वासुकि नाग को अपने हाथ में कंगन के
समान धारण करनेवाले, महाधनुर्धर, पृथ्वीपालक, कलंकशून्य, बन्धनरहित|
द्युमणिस्तरणिर्धन्यः
सिद्धिदः सिद्धिसाधनः।
विश्वतः संवृतः स्तुत्यो
व्यूढोरस्को महाभुजः॥128॥
अर्थ:– आकाश में मणि के समान प्रकाशमान तथा
भक्तों को भवसागर से तारने के लिये नौकारूप सूर्य, कृतकृत्य, सिद्धिदाता और सिद्धि के साधक, सब ओर से मायाद्वारा आवृत, स्तुति के योग्य, चौड़ी छातीवाले, बड़ी बाँहवाले|
सर्वयोनिर्निरातङ्को
नरनारायणप्रियः।
निर्लेपो निष्प्रपञ्चात्मा
निर्व्यङ्गो व्यङ्गनाशनः॥129॥
अर्थ:– सबकी उत्पत्ति के स्थान, निर्भय, नर-नरायण के प्रेमी अथवा प्रियतम, दोषसम्पर्क से रहित तथा जगत्प्रपंच से
अतीत स्वरूपवाले, विशिष्ट अंगवाले प्राणियों के
प्राकट्य में हेतु, यज्ञादि कर्मों में होनेवाले
अंग-वैगुण्य का नाश करनेवाले|
स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोता
व्यासमूर्तिर्निरङ्कुशः।
निरवद्यमयोपायो विद्याराशी
रसप्रियः॥130॥
अर्थ:– स्तुति के योग्य, स्तुति के प्रेमी, स्तुति करनेवाले, व्यासस्वरूप, अंकुशरहित स्वतन्त्र, मोक्ष-प्राप्ति के निर्दोष उपायरूप, विद्याओं के सागर, ब्रह्मानन्द रस के प्रेमी|
प्रशान्तबुद्धिरक्षुण्णः
संग्रही नित्यसुन्दरः।
वैयाघ्रधुर्यो धात्रीशः
शाकल्यः शर्वरीपतिः॥131॥
अर्थ:– शान्त बुद्धिवाले, क्षोभ या नाश से रहित, भक्तों का संग्रह करनेवाले, सतत मनोहर, व्याघ्रचर्मधारी, ब्रह्माजी के स्वामी, शाकल्य ऋषिरूप, रात्रि के स्वामी चन्द्रमारूप|
परमार्थगुरुर्दत्तः
सूरिराश्रितवत्सलः।
सोमो रसज्ञो रसदः
सर्वसत्त्वावलम्बनः॥132॥
अर्थ:– परमार्थतत्त्व का उपदेश देनेवाले
ज्ञानी गुरु दत्तात्रेयरूप, शरणागतों पर दया करनेवाले, उमासहित, भक्तिरस के ज्ञाता, प्रेमरस प्रदान करनेवाले, समस्त प्राणियों को सहारा देनेवाले|
इस
प्रकार श्रीहरि प्रतिदिन सहस्र नामोंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति, सहस्र कमलोंद्वारा उनका पूजन एवं
प्रार्थना किया करते थे। इस तरह उनसे पूजित एवं प्रसन्न हो शिवने उन्हें
सुदर्शन चक्र दिया और इस प्रकार कहा – “हरे! सब प्रकार के अनर्थों की शान्ति के
लिये तुम्हें मेरे स्वरूप का ध्यान करना चाहिये।
अनेकानेक
दुःखों का नाश करने के लिये इस सहस्रनाम का पाठ करते रहना चाहिये तथा समस्त
मनोरथों की सिद्धि के लिये सदा मेरे इस सुदर्शन चक्र को प्रयत्नपूर्वक धारण करना
चाहिये, यह सभी चक्रों में उत्तम है।
दूसरे
भी जो लोग प्रतिदिन इस सहस्रनाम का पाठ करेंगे या करायेंगे, उन्हें स्वप्न में भी कोई दुःख नहीं
प्राप्त होगा। राजाओं की ओर से संकट प्राप्त होने पर यदि
मनुष्य सांगोपांग विधिपूर्वक इस सहस्रनाम स्तोत्र का सौ बार पाठ करे तो निश्चय ही
कल्याण का भागी होता है।
यह
उत्तम स्तोत्र रोग का नाशक, विद्या
और धन देनेवाला,
सम्पूर्ण
अभीष्ट की प्राप्ति कराने वाला, पुण्यजनक
तथा सदा ही शिवभक्ति देने वाला है। जिस फल के उद्देश्य से मनुष्य यहाँ इस श्रेष्ठ
स्तोत्र का पाठ करेंगे उसे निस्संदेह प्राप्त कर लेंगे। उसे
इस लोक में सम्पूर्ण अभीष्ट को देनेवाली सिद्धि पूर्णतया प्राप्त होती है और अन्त में
वह सायुज्य मोक्ष का भागी होता है इसमें कोई संशय नहीं है।”
सूतजी कहते हैं–
मुनीश्वरो!
ऐसा कहकर सर्वदेवेश्वर भगवान् रुद्र श्रीहरि के अंग का स्पर्श किये और उनके
देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये। भगवान् विष्णु भी शंकरजी के वचन से तथा
उस शुभ सुदर्शन चक्र को पा जाने से मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। फिर वे प्रतिदिन शम्भु के ध्यानपूर्वक
इस स्तोत्र का पाठ करने लगे। उन्होंने अपने भक्तों को भी इसका उपदेश
दिया।
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