कनक धारा स्तोत्र हिंदी अर्थ के साथ और इसके लाभ
कनकधारा स्तोत्र
की रचना आदि गुरु शंकराचार्य ने की थी जब वो एक दरिद्र ब्राह्मण के घर पर भिक्षा
लेने के लिए गये हुए थे|
जब उस दरिद्र ब्राह्मण औरत के घर पर भिक्षा में देने क लिए कुछ नही होता तो वह
संकोच वश उनको कुछ सूखे आवले देती है| उस औरत की ऐसी स्थिति में भी भिक्षुक को
खाली हाथ ना जाने देने की भावना से प्रसन्न होकर शंकराचार्य जी ने कनकधारा स्तोत्र
की रचना की| कनक का मतलब होता है सोना और धारा मतलब लगातार प्रवाह इसका मतलब होता
है लक्ष्मी का लगातार प्रवाह|
ऐसा कहा जाता है कि इस स्तोत्र का पाठ उस दरिद्र औरत के घर पर होने से उसके घर पर सोने
के आवलो की वर्षा होने लगी थी|
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कनकधारा स्तोत्र के पाठ के शुभ फल:-
जैसे की इसके
नाम से ही स्पष्ट है कि इस स्तोत्र का जाप करने से मा लक्ष्मी की भक्तो पर असीम
कृपा होती है| उनके घर पर धन का निरंतर आगमन होता रहता
है| इस पाठ का जाप शुक्रवार, पूर्णिमा, धनतेरस और दीपावली पर विशेष तौर
पर करना चाहिए| जैसे की स्तोत्र में कहा गया है की इसका नियमित तीनों समय-
प्रातकाल, मध्याहन और सायकाल को इसका पाठ करने से मनुष्य या साधक महान गुणवान,
सोभाग्यशाली और कुबेर के समान धनवान हो जाता है|
ध्यान
ॐ वन्दे वन्दारु मन्दार
मिन्दीरानन्द कल्दलं |
अमंदानन्द सन्दोह
बन्धुरं सिंधुराननं ||
कनकधारा स्तोत्र हिंदी अर्थ के साथ
ॐ अङ्गं हरै (हरेः)
पुलकभूषण-माश्रयन्ती भृङ्गाऽगनेव मुकुला-भरणं तमालं |
अंगीकृता-ऽखिलविभूतिर-पॉँगलीला-माँगल्य-दाऽस्तु
मम् मङ्गलदेवतायाः || १ ||
अर्थ:- जैसे भ्रमरी अर्धविकसित पुष्पों से अलङ्कृत तमालवृक्ष का आश्रय ग्रहण करती
है, वैसे ही भगवान् श्रीहरि के रोमाँच से शोभायमान
माँ लक्ष्मीजी कटाक्षलीला, श्रीअङ्गों पर अनवरत पड़ती रहती है, जिसमे समस्त
ऐश्वर्य, धन, संपत्ति का निवास है, वो समस्त मंगलो
की अधिष्ठात्री माँ लक्ष्मीजी की कटाक्षलीला मेरे लिये मङ्गलकारी हो ।
मुग्धा मुहुर्विदधी वदने
मुरारेः प्रेमत्रपा प्रणि-हितानि गताऽगतानि ।
मला-र्दशोर्म-धुकरीव
महोत्पले या सा में श्रियं दिशतु सागर सम्भवायाः || २ ||
अर्थ:- जिस प्रकार भ्रमरी महान कमलदल पर आती-जाती रहती है, (मंडराती रहती है), वैसे ही भगवान मुरारी के मुखकमल की ओंर
प्रेम सहित जाकर और लज्जा से वापिस आकर समुद्र कन्या लक्ष्मी की मनोहर मुग्ध
दृष्टिमाला मुझे खूब धन-संपत्ति प्रदान करे।
विश्वामरेन्द्र पद-विभ्रम-दानदक्षमा-नन्दहेतु-रधिकं
मुरविद्विषोपि |
ईषन्निषीदतु मयि क्षण
मीक्षणार्धं-मिन्दीवरोदर सहोदर-मिन्दीरायाः || ३ ||
अर्थ:- जो देवताओ के स्वामी इंद्र को के पद का वैभव-विलास देने में समर्थ
है, मधुहंता
नाम के दैत्य के शत्रु भगवान विष्णु को
भी आप आधिकाधिक आनंद प्रदान करने वाली है, नीलकमल जिसका सहोदर
है अर्थात भाई है, उन लक्ष्मीजी के अर्ध खुले हुए नेत्रों
की दृश्टि किंचित क्षण के लिए मुझ पर पड़े।
आमीलिताक्ष-मधिगम्य मुदा-मुकुन्दमा-नन्द कंद-मनिमेष-मनंगतन्त्रं |
आकेकर स्थित कनीतिक-पद्मनेत्रं
भूत्यै भवेन्मम भुजङ्ग शयाङ्गनायाः || ४ ||
अर्थ:- जिसकी पुतली एवं भौहे काम के वशीभूत हो अर्धविकसित एकटक आँखों से
देखनेवाले आनंद सत्चिदानन्द मुकुंद भगवान को अपने निकट पाकर किंचित तिरछी हो जाती
हो, ऐसे शेष पर शयन करने वाले भगवान नारायण की अर्द्धांगिनी
श्रीमहालक्ष्मीजी के नेत्र हमें धन-संपत्ति प्रदान करे।
बाह्यन्तरे मुरजितः
(मधुजितः) श्रुत-कौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति ।
कामप्रदा भगवतोऽपि
कटाक्षमाला कल्याण-मावहतु में कमला-लयायाः ॥ ५ ॥
अर्थ:- भगवान मधुसूदन के कौस्तुभमणि से विभूषित वक्षस्थल में इंद्रनीलमयी
हारावली की तरह जो सुशोभित है तथा उनके मन में भी प्रेम का संचार करने वाली है, वह कमल निवासिनी लक्ष्मीजी की कृपाकटाक्ष मेरा भी सदासर्वदा मंगल करे।
कालाम्बुदालि ललितो-रसि
कैटभारे-र्धाराधरे स्फुरति या तडिदंगनेव |
मातुः समस्त-जगतां महनीय-मूर्तिर्भद्राणि
में दिशतु भार्गव-नंदनायाः || ६ |
अर्थ:- जिस तरह से मेघो की घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार मधु-कैटभ के शत्रु भगवान विष्णु के काली मेघपंक्ति की
तरह सुमनोहर वक्षस्थल पर आप एक विद्युत के समान देदीप्यमान होती हो, जिन्होंने अपने अविर्भाव से भृगुवंश को आनंदित किया है तथा जो
समस्त लोकों की जननी है वो भगवती लक्ष्मी मुझे कल्याण प्रदान करे।
प्राप्तं पदं प्रथमतः
किल यत प्रभावा-न्मांगल्य-भाजि मधुमाथिनी मन्मथेन |
मय्यापतेत्त-दिह मन्थर-मीक्षणार्धं
मन्दालसं च मकरालय-कन्यकायाः || ७ ||
अर्थ:- समुद्र तनया (समुद्र की पुत्री) लक्ष्मी की वह मन्द, अलस, मन्थर, अर्धोन्मीलित दृष्टि जिसके प्रभावमात्र
से कामदेव ने मंगलमय भगवान मधुसूदन के हृदय में प्रथम बार स्थान प्राप्त किया था, वही दृष्टि मेरे ऊपर भी पड़े।
दद्याद दयानु-पवनो
द्रविणाम्बु-धारामस्मिन्न-किञ्चन विहङ्ग-शिशो विषण्णे |
दुष्कर्म-धर्म-मपनीय
चिराय दूरं नारायण-प्रणयिनी-नयनाम्बु-वाहः ॥ ८ ॥
अर्थ:- भगवान श्रीहरि की प्रेमिका का नेत्र रूपी मेघ, दयारूपी अनुकूल वायु से प्रेरित होकर दुष्कर्म (धनागम विरोधी अशुभ
प्रारब्ध) रूपी धाम को दीर्घकाल के लिए दूर हटाकर विषादरुपी धर्मजन्य ताप से मुझ दुखी सदृश चातक
पर धन रूपी जलधारा की वर्षा करे।
इष्टा-विषिश्टम-तयोऽपि
यया दयार्द्र-दृष्टया त्रिविष्ट-पपदं सुलभं लभन्ते ।
दृष्टिः प्रहष्ट-कमलोदर-दीप्ति-रिष्टां
पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्कर-विष्टरायाः || ९ ||
अर्थ:- मतिहीन मनुष्य भी जिसके स्मरण मात्र से ही स्वर्ग को प्राप्त कर
लेता है, उन्ही कमलासना कमला लक्ष्मीजी के विकसित कमल गर्भ के सदृश कांतिमयी
दृष्टि मुझे मनोवांछित पुष्टि, संतान आदि की वृद्धि प्रदान करे।
गीर्देव-तेति गरुड़-ध्वज-सुन्दरीति
शाकम्भ-रीति शशि-शेखर-वल्लभेति |
सृष्टि-स्थिति-प्रलय-केलिषु
संस्थि-तायै तस्यै नमस्त्रिभुवनै-कगुरोस्तरुण्यै || १० ||
अर्थ:- जो माँ भगवती श्री सृष्टिक्रीड़ा में अवसर अनुसार वाग्देवता
(ब्रह्मशक्ति) के रूप में विराजमान होती है, पालनक्रीड़ा के समय
लक्ष्मी के रूप में विष्णु की पत्नी के विराजमान होती है, प्रलयक्रीड़ा के समय शाकम्भरी (भगवती दुर्गा) अथवा चन्द्रशेखर
वल्लभा पार्वती (रूद्रशक्ति) भगवान शंकर की पत्नी के रूप में विद्यमान होती है, उन त्रिलोक के एकमात्र गुरु पालनहार विष्णु की नित्य यौवना
प्रेमिका भगवती लक्ष्मी को मेरा सम्पूर्ण नमस्कार है।
श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभ-कर्मफल-प्रसूत्यै
रत्यै नमोऽस्तु रमणीय गुणार्ण-वायै |
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्र-निकेतनायै
पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तम-वल्लभायै || ११ ||
अर्थ:- हे माँ लक्ष्मी, शुभ कर्मो का फल देने वाली श्रुति के
रूप में मै आपको प्रणाम करता हू। रमणीय गुणों की सिन्धुरूपा रति के रूप में आपको
प्रणाम है। शतपत्र वाले अर्थात सौ पत्रोंवाले कमलकुञ्ज में निवास करनेवाली
शक्तिरूपा माँ रमा को नमस्कार है तथा पुष्टि रूपा पुरुषोतम प्रिया को मेरा नमस्कार है।
नमोऽस्तु नालीकनि-भाननायै
नमोऽस्तु दुग्धो-दधि-जन्म-भूत्यै |
नमोऽस्तु सोमा-मृत-सोदरायै
नमोऽस्तु नारायण-वल्लभायै || १२ ||
अर्थ:- कमल समान मुखवाली लक्ष्मी को नमस्कार है। क्षीरसमुद्र में उत्पन्न
होने वाली समुद्र तनया रमा को नमस्कार है | चंद्र और अमृत की सगी
बहन को नमस्कार है। भगवान नारायण की वल्लभा (प्रेयसी) को नमस्कार है।
नमोऽस्तु हेमाम्बुज
पीठिकायै नमोऽस्तु भूमण्डल नयिकायै ।
नमोऽस्तु देवादि दया-परायै
नमोऽस्तु शारङ्ग-युध वल्लभायै || १३ ||
अर्थ:- सोने के कमलासन पर बैठनेवाली, भूमण्डल नायिका, देवताओ पर दयाकरनेवाली, शाङ्घायुध विष्णु की
वल्लभा शक्ति को नमस्कार है।
नमोऽस्तु देव्यै
भृगुनन्दनायै नमोऽस्तु विष्णोरुरसि संस्थितायै ।
नमोऽस्तु लक्ष्म्यै
कमलालयायै नमोऽस्तु दामोदरवल्लभायै || १४ ||
अर्थ:- भगवान् विष्णु के वक्षःस्थल में निवास करनेवाली देवी, कमल के आसनवाली, दामोदर प्रिय लक्ष्मी, आपको मेरा नमस्कार है।
नमोऽस्तु कान्त्यै
कमलेक्षणायै नमोऽस्तु भूत्यै भुवनप्रसूत्यै |
नमोऽस्तु
देवादिभिरर्चितायै नमोऽस्तु नन्दात्मजवल्लभायै ॥ १५
॥
अर्थ:- भगवान् विष्णु की कान्ता, कमल के जैसे
नेत्रोंवाली, त्रैलोक्य को उत्पन्न करनेवाली, देवताओ के द्वारा
पूजित, नन्दात्मज की वल्लभा ऐसी श्रीलक्ष्मीजी को मेरा नमस्कार है।
सम्पत्कराणि सकलेन्द्रिय-नंदनानि
साम्राज्य-दान-विभवानि सरो-रुहाक्षि ।
त्वद्वन्द-नानि दुरिता-हरणो-द्यतानी
मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये || १६ |
अर्थ:- हे कमलाक्षी (कमल के जैसे आँखोंवाली), आपके चरणों में की हुई स्तुति प्रार्थना संपति प्रदान करने वाले, समस्त इन्द्रियों को आनंद देने वाले है, सभी सुखो को देनेवाली (साम्राज्य देने वाली), सभी पापो को नष्ट करनेवाली, हे पाप हिन आप मुझे
अपने चरणों की वंदना करने का अवसर सदा प्रदान करे।
यत्कटाक्ष-समुपासना-विधिः
सेव-कस्य सकलार्थ-सम्पदः ।
सन्त-नोति वचनाङ्ग-मानसै-स्त्वां
मुरारि-हृदयेश्वरीं भजे ॥ १७ ॥
अर्थ:- जिनके कृपा कटाक्ष के लिए की गई उपासना उपासक के लिए समस्त मनोरथ
और धन-संपत्ति का विस्तार करती है उस मुरारी की हृदयेश्वरी लक्ष्मी को, मै मन, वाणी और शरीर से भजन करता हू।
सरसिज-निलये सरोज-हस्ते धवल-तमांशुक-गन्धमाल्य-शोभे ।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे
त्रिभुवन-भूतिकरि प्रसीद मह्यं ॥ १८ ॥
अर्थ:- हे भगवती नारायण की पत्नी आप कमल में निवास करने वाली है, आप के हाथो में नीलकमल शोभायमान है आप श्वेत वस्त्र,
गंध और माला आदि से सुशोभित है, आपकी झांकी बड़ी
मनोहर है, अद्वितीय है, हे त्रिभुवन के ऐश्वर्य प्रदान
करनेवाली आप मेरे ऊपर भी प्रसन्न होइये ।
दिग्ध-स्तिभिः कनककुम्भ-मुखावसृष्ट-स्वर्वाहिनी-विमलचारु-जलप्लु तांगीं ।
प्रात-र्नमामि जगतां
जननी-मशेष-लोकाधिनाथ-गृहिणी-ममृताब्धि-पुत्रीं || १९ ॥
अर्थ:- महानुभावो द्वारा (दिग्गजों के द्वारा पूजित) स्वर्ण कलश के मुख
से गिराए गए, आकाशगंगा के स्वच्छ और मनोहर जल से जिन भगवान के श्रीअंगो का
अभिषेक (स्नान) होता है, उस समस्त लोको के अधीश्वर भगवान विष्णु
की गृहिणी, समुद्र तनया (क्षीरसागर पुत्री), जगतजननी भगवती
लक्ष्मी को मै प्रातःकाल नमस्कार करता हू ।
कमले कमलाक्ष-वल्लभे
त्वां करुणा-पूरतरङ्गी-तैर-पारङ्गैः ।
अवलोक-यमां-किञ्चनानां
प्रथमं पात्रम-कृत्रिमं दयायाः || २० ||
अर्थ:- हे कमलनयन भगवान विष्णु की प्रिया लक्ष्मीजी, मै अकिंचन (दीनहीन)
मनुष्यो में अग्रगण्य हू, इसलिए आपकी कृपा का स्वाभाविक पात्र
हू। आप छलकती हुई करुणा के बाढ़ की तरल - तरंगो के सदृश कटाक्षों के द्वारा मेरी ओर
देखो।
स्तुवन्ति ये स्तुति-भिरमू-भिरन्वहं
त्रयीमयीं त्रिभुवन-मातरं रमां ।
गुणाधिका गुरु-तरभाग्य-भाजिनो
(भागिनो) भवन्ति ते भुवि बुध-भाविता-शयाः || २१ ||
अर्थ:- जो मनुष्य या साधक इन स्तोत्रों के द्वारा प्रतिदिन वेदत्रयी
स्वरूपा, त्रिभुवन जननी (लक्ष्मीजी का एक नाम) के स्तोत्र पाठ करते है वो
मनुष्य इस भूतल पर महान गुणवान और अत्यंत सौभाग्यशाली होते है, और विद्वान लोग भी उनके मनभाव को जाने के लिए उत्सुक रहते है।
ॐ सुवर्ण-धारास्तोत्रं
यच्छंकराचार्य निर्मितं |
त्रिसन्ध्यं यः
पठेन्नित्यं स कुबेरसमो भवेत || २२ ||
अर्थ:- यह उत्तम स्तोत्र जो आद्यगुरु शंकराचार्य विरचित स्तोत्र का
(कनकधारा) का पाठ तीनो कालो में (प्रातःकाल मध्याह्नकाल-सायंकाल) करता है वो
मनुष्य या साधक कुबेर के समान धनवान हो जाता है।
इति श्रीमद् शंकराचार्य
विरचित कनकधारा स्तोत्र सम्पूर्णं
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