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Ganapathi Sahastranama Stotram in Hindi – श्री गणपति सहस्रनाम स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित

  Ganapathi Sahastranama Stotram in Hindi – श्री गणपति सहस्रनाम स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित     व्यास उवाच अर्थ:- व्यास जी बोले, हे! लोकानुग्रह में तत्पर ब्रह्माजी गणेश ने अपने कल्याणकारी सहस्त्र नामो का उपदेश कैसे दिया वह मुझे बतलाइये| कथं नाम्नां सहस्रं स्वं गणेश उपदिष्टवान् । शिवाय तन्ममाचक्ष्व लोकानुग्रहतत्पर ॥ १ ॥ ब्रह्मोवाच : देवदेवः पुरारातिः पुरत्रयजयोद्यमे । अनर्चनाद्गणेशस्य जातो विघ्नाकुलः किल ॥ २ ॥ मनसा स विनिर्धार्य ततस्तद्विघ्नकारणम् । महागणपतिं भक्त्या समभ्यर्च्य यथाविधि ॥ ३ ॥ विघ्नप्रशमनोपायमपृच्छदपराजितः । सन्तुष्टः पूजया शम्भोर्महागणपतिः स्वयम् ॥ ४ ॥ सर्वविघ्नैकहरणं सर्वकामफलप्रदम् । ततस्तस्मै स्वकं नाम्नां सहस्रमिदमब्रवीत् ॥ ५ ॥ अर्थ:- ब्रह्मा जी बोले, पूर्व काल में त्रिपुरारी शिव ने त्रिपुरासुर तथा उसके तीनों पूरो पर युद्ध में विजय के उद्यत होने पर गणेश जी की पूजा नही की थी | अतः वे विघ्नों से व्याकुल हुए थे अतः उन्होंने अपने मन से उस विघ्न के कारण का निर्धारण करके महागणपति का भक्तिपूर्वक यथाविधि पूजन करके उनसे अपनी पराजय होने पर विघ्

Ganapathi Sahastranama Stotram in Hindi – श्री गणपति सहस्रनाम स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित

 

Ganapathi Sahastranama Stotram in Hindi – श्री गणपति सहस्रनाम स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित

 

 

व्यास उवाच

अर्थ:- व्यास जी बोले, हे! लोकानुग्रह में तत्पर ब्रह्माजी गणेश ने अपने कल्याणकारी सहस्त्र नामो का उपदेश कैसे दिया वह मुझे बतलाइये|

कथं नाम्नां सहस्रं स्वं गणेश उपदिष्टवान् ।
शिवाय तन्ममाचक्ष्व लोकानुग्रहतत्पर ॥ १ ॥

ब्रह्मोवाच:

देवदेवः पुरारातिः पुरत्रयजयोद्यमे ।
अनर्चनाद्गणेशस्य जातो विघ्नाकुलः किल ॥ २ ॥

मनसा स विनिर्धार्य ततस्तद्विघ्नकारणम् ।
महागणपतिं भक्त्या समभ्यर्च्य यथाविधि ॥ ३ ॥

विघ्नप्रशमनोपायमपृच्छदपराजितः ।
सन्तुष्टः पूजया शम्भोर्महागणपतिः स्वयम् ॥ ४ ॥

सर्वविघ्नैकहरणं सर्वकामफलप्रदम् ।
ततस्तस्मै स्वकं नाम्नां सहस्रमिदमब्रवीत् ॥ ५ ॥

अर्थ:- ब्रह्मा जी बोले, पूर्व काल में त्रिपुरारी शिव ने त्रिपुरासुर तथा उसके तीनों पूरो पर युद्ध में विजय के उद्यत होने पर गणेश जी की पूजा नही की थी| अतः वे विघ्नों से व्याकुल हुए थे अतः उन्होंने अपने मन से उस विघ्न के कारण का निर्धारण करके महागणपति का भक्तिपूर्वक यथाविधि पूजन करके उनसे अपनी पराजय होने पर विघ्न को दूर करने का उपाय पूछा| शिव के द्वारा की गयी पूजा से संतुष्ट होकर महागणपति ने सभी विघ्नों को दूर करने वाला, सभी मनोकामनाओ को पूर्ण करने वाला अपना यह सहस्त्रनाम स्तोत्र स्वयं शिवजी को बतलाया था|

अस्य श्रीमहागणपति सहस्रनाममालामन्त्रस्य महागणपति ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः श्रीमहागणपतिर्देवता गं बीजं हुं शक्तिः स्वाहा कीलकं श्रीमहागणपति प्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।

ध्यानम्:

गजवदनमचिन्त्यं तीक्ष्णदंष्ट्रं त्रिनेत्रं बृहदुदरमशेषं भूतिराजं पुराणम् ।
अमरवरसुपूज्यं रक्तवर्णं सुरेशं पशुपतिसुतमीशं विघ्नराजं नमामि ॥

श्री गणपति सहस्रनाम स्तोत्र

ॐ गणेश्वरो गणक्रीडो गणनाथो गणाधिपः ।
एकदंष्ट्रो वक्रतुण्डो गजवक्त्रो महोदरः ॥ १ ॥

अर्थ:- वह जो सृष्टि के स्वामी है, गणों के साथ क्रीडा करने वाले, गणों के नाथ अर्थात स्वामी है, शिवगणों के अधिपति, एक दांत वाले, मुड़ी हुई सूंड वाले, हाथी के मुख वाले, विशाल उदर वाले है|

लम्बोदरो धूम्रवर्णो विकटो विघ्ननायकः ।
सुमुखो दुर्मुखो बुद्धो विघ्नराजो गजाननः ॥ २ ॥

अर्थ:- जो लम्बे उदर वाले है, जिनकी देह धुए के रंग की है, जो विशाल देह वाले है, विघ्नों का नाश करने वाले है, सदैव प्रसन्नचित्त रहने वाले, चंचल मुख वालें, ज्ञानवान एवम् चतुर, समस्त विघ्नों के स्वामी, जिनका शीश हाथी का है|

भीमः प्रमोद आमोदः सुरानन्दो मदोत्कटः ।
हेरम्बः शम्बरः शम्भुर्लम्बकर्णो महाबलः ॥ ३ ॥

अर्थ:- जो विशाल एवम् कठोर है, जो आनंदमय साधन प्रदान करने वाले है, सदैव उत्साहित रहने वाले है, शिवगणों को प्रसन्नता प्रदान करने वाले है, निष्कपट एवम् मेधावी, दुर्बलो की रक्षा करने वाले, जल के रूप में निवास करने वाले, आनंद प्रदान करने वाले है, बड़े कानो वाले है, जो अत्यंत सुदृढ़ और साहसी है|

नन्दनोऽलम्पटोऽभीरुर्मेघनादो गणञ्जयः ।
विनायको विरूपाक्षो धीरशूरो वरप्रदः ॥ ४ ॥

अर्थ:- जो युवा है, जो सुंदर वस्त्र धारण करते है, निर्भीक है, मेघो के समान गर्जना करने वाले है, दुष्टों पर विजय पाने वाले, सर्वोच्च एवम् सर्वश्रेष्ठ, जो सूर्य, चन्द्र और अग्नि को नेत्रों के रूप में धारण करने वाले है, अत्यंत शूरवीर और वर प्रदान करने वाले है|

महागणपतिर्बुद्धिप्रियः क्षिप्रप्रसादनः ।
रुद्रप्रियो गणाध्यक्ष उमापुत्रोऽघनाशनः ॥ ५ ॥

अर्थ:- जो सर्वशक्तिमान, ज्ञान के प्रशंसक, शीघ्र वर देने वाले है, जो रूद्र मंत्र के प्रशंसक है, 36 सिद्धांतो की रक्षा करने वाले है, देवी उमा के पुत्र और पापो का नाश करने वाले है|

कुमारगुरुरीशानपुत्रो मूषकवाहनः ।
सिद्धिप्रियः सिद्धिपतिः सिद्धः सिद्धिविनायकः ॥ ६ ॥

अर्थ:- जो भगवान कार्तिकेय के गुरु है, जो भगवान शिव के पुत्र है, मूषक को अपना वाहन रखने वाले, सिद्धि को प्राप्त करने वाले, समस्त सिद्धियों के स्वामी, जो स्वयं सिद्धि स्वरूप है, जो सफलता प्रदान करने वाले है|

अविघ्नस्तुम्बुरुः सिंहवाहनो मोहिनीप्रियः ।
कटङ्कटो राजपुत्रः शालकः सम्मितोऽमितः ॥ ७ ॥

अर्थ:- जो अज्ञान को नष्ट करते है, तुम्बुरु नामक वाद्यन्त्र से खुश होने वाले, सिंह के वाहन पर आरुढ़ रहने वाले, मोहिनी के प्रिय, जो अज्ञान का नाश करने वाले है, जो राजा वरेण्य के पुत्र है, जो शांत एवम् सयंमित है, जो आकार प्रकार में समान एवम् संयमित है, जो असीमित है|

कूष्माण्डसामसम्भूतिर्दुर्जयो धूर्जयो जयः ।
भूपति-र्भुवनपति-र्भूतानाम्पतिरव्ययः ॥ ८ ॥

अर्थ:- वेदों को अपनी सम्पति मानने वाले, जो अपराजेय है, दुर्जनों को जीतने वाले, विजयी, जो देवो के देव, संसार के स्वामी, पंच तत्वों के अधिपति है और जो अमर है|

विश्वकर्ता विश्वमुखो विश्वरूपो निधिर्घृणिः ।
कविः कवीनामृषभो ब्रह्मण्यो ब्रह्मणस्पतिः ॥ ९ ॥

अर्थ:- जो सृष्टी के निर्माता है, जो मुख के रूप मे सृष्टी धारण करते है, सम्पूर्ण सृष्टी के रूप मे जो है, जो नौ निधियाँ प्रदान करने वाले है, जो सूर्य के रूप में विद्यमान है, जो कवि है, जो कवियों में सर्वश्रेठ है, जो ब्रह्मा के रक्षक है और वाणी के स्वामी है|

ज्येष्ठराजो निधिपतिर्निधिप्रियपतिप्रियः ।
हिरण्मयपुरान्तःस्थः सूर्यमण्डलमध्यगः ॥ १० ॥

अर्थ:- जो सामवेद के अनुसार सबसे बड़े है, जो निधियो के अभिरक्षक है, कुबेर भी जिनकी पूजा करते है, गहरे विचारो में मग्न रहने वाले, जो सूर्यमंडल में निवास करने वाले है|

कराहतिध्वस्तसिन्धुसलिलः पूषदन्तभित् ।
उमाङ्ककेलिकुतुकी मुक्तिदः कुलपालनः ॥ ११ ॥

अर्थ:- अपनी सूंड से समुन्द्र सुखा देने वाले, पूषा का दांत खंडित करने वाले, माता उमा की गोद में हर्षित होने वाले, जो मुक्ति प्रदान करने वाले और कुल का पालन/ रक्षा करने वाले है|

किरीटी कुण्डली हारी वनमाली मनोमयः ।
वैमुख्यहतदैत्यश्रीः पादाहतिजितक्षितिः ॥ १२ ॥

अर्थ:- जो सुंदर मुकुट धारण करते है, कुण्डल धारण करने वाले, जो मोतियों का हार धारण करे हुए है, जो सुंदर पुष्पों के हार से सुशोभित है, अपने मन की करने वाले/स्वमत, अश्र्व्दावान का वैभव हरने वाले, अपने चरणों से पृथ्वी का अहंकार नष्ट करने वाले|

सद्योजातस्वर्णमुञ्जमेखली दुर्निमित्तहृत् ।
दुःस्वप्नहृत्प्रसहनो गुणी नादप्रतिष्ठितः ॥ १३ ॥

अर्थ:- जो कमर में कुशा घास की मेखला धारण करते है, दुस्वप्न का नाश करने वाले, दोषों को सहन करने वाले, जो समस्त गुणों के स्वामी है और जो संगीत में विधमान रहने वाले है|

सुरूपः सर्वनेत्राधिवासो वीरासनाश्रयः ।
पीताम्बरः खण्डरदः खण्डेन्दुकृतशेखरः ॥ १४ ॥

अर्थ:- जो सुंदर रूप वाले है, सभी के नेत्रों में विधमान रहने वाले, सुदृढ़ता से डटे रहने वाले, पीले वस्त्र धारण करने वाले, जिनका दांत खंडित है और जिनके घुंघराले बालो में अर्धचन्द्र सुशोभित है|

चित्राङ्कश्यामदशनो फालचन्द्रश्चतुर्भुजः ।
योगाधिपस्तारकस्थः पुरुषो गजकर्णकः ॥ १५ ॥

अर्थ:- जो विचित्र और रंग बिरंगे दांत वाले है, जिनके मस्तक पर चन्द्रमा सुशोभित है, जिनके चार हाथ है, जो योग के अधिष्ठाता है, तारकमंत्र में निवास करने वाले, जो पुरुष है और हाथी जैसे कान वाले है|

गणाधिराजो विजयस्थिरो गजपतिध्वजी ।
देवदेवः स्मरप्राणदीपको वायुकीलकः ॥ १६ ॥

अर्थ:- जो गणों के राजा है, जो सदैव विजय हेतु आतुर रहते है, जो हाथी के प्रतीक वाला ध्वज लिए हुए है, जो देवताओं के भी देवता है, जो मन्मथ को पुनर्जीवित करने वाले है, जो जीवन शक्ति के रक्षक है|

विपश्चिद्वरदो नादोन्नादभिन्नबलाहकः ।
वराहरदनो मृत्युञ्जयो व्याघ्राजिनाम्बरः ॥ १७ ॥

अर्थ:- जो राजा विपश्चिद को वरदान देने वाले है, जो सूँड से मेघो की दिशा बदल देते है, वराह के दांत से भी सुंदर दांत वाले, मृत्यु पर विजय प्राप्त करने वाले, और जो बाघम्बर धारण करने वाले है|

इच्छाशक्तिधरो देवत्राता दैत्यविमर्दनः ।
शम्भुवक्त्रोद्भवः शम्भुकोपहा शम्भुहास्यभूः ॥ १८ ॥

अर्थ:- जो आत्म नियन्त्रण में रहते है, देवो की रक्षा करने वाले है, दैत्यों का संहार करने वाले है, जो शिव के मुख से व्यक्त होते है, जो शिवजी का क्रोध शांत करते है, जो शिवजी की महिमा का गुणगान करते है|

शम्भुतेजाः शिवाशोकहारी गौरीसुखावहः ।
उमाङ्गमलजो गौरीतेजोभूः स्वर्धुनीभवः ॥ १९ ॥

अर्थ:- जो शिव के समान तेज वाले है, माता पार्वती (शिवा) के शोक को हरने वाले है, माता गौरी को प्रसन्न रखने वाले है, देवी उमा की गोद में खेलने वाले, माता पार्वती के तेजसे उत्पन्न, जो गंगा के उद्भव का कारण है|

यज्ञकायो महानादो गिरिवर्ष्मा शुभाननः ।
सर्वात्मा सर्वदेवात्मा ब्रह्ममूर्धा ककुप्छ्रुतिः ॥ २० ॥

अर्थ:- जो स्वयं यज्ञ स्वरूप है, अत्यंत तेज ध्वनी उत्पन्न करने वाले है, पर्वतों के समान देह वाले है, मंगलमयी मुखाकृति वाले है, समस्त सृष्टी में विद्यमान रहने वाले है, समस्त देवो में उपस्थित रहने वाले है, ब्रह्मा के मुख वाले है और जो दिशाओ को कान के रूप में धारण करने वाले है|

ब्रह्माण्डकुम्भश्चिद्व्योमफालः सत्यशिरोरुहः ।
जगज्जन्मलयोन्मेषनिमेषोऽग्न्यर्कसोमदृक् ॥ २१ ॥

अर्थ:- जो सृष्टी को अपने मस्तक के भाग में रखते है, अन्तरिक्ष के समान मस्तक वाले, सत्य को केश के रूप में धारण करने वाले, क्षणभर में सृष्टी का सृजन और विनाश करने वाले और जो सूर्य, चन्द्र और अग्नि को नेत्रों के रूप में धारण करने वाले है|

गिरीन्द्रैकरदो धर्माधर्मोष्ठः सामबृंहितः ।
ग्रहर्क्षदशनो वाणीजिह्वो वासवनासिकः ॥ २२ ॥

अर्थ:- जो मेरु पर्वत को अपने दांत के रूप में धारण किये हुए है, धर्म और अधर्म जिनके दोनों होंठ है, सामवेद जिनकी वाणी है, जो सूर्य आदि ग्रहों को अपने दांतों के रूप में धारण करने वाले है, वाणी को जिव्हा के रूप में धारण करने वाले है और इंद्र को नासिका के रूप में धारण करने वाले है|

कुलाचलांसः सोमार्कघण्टो रुद्रशिरोधरः ।
नदीनदभुजः सर्पाङ्गुलीकस्तारकानखः ॥ २३ ॥

अर्थ:- कुल पर्वत जिनके कंधो के रूप में स्थित है, जो चन्द्र रुपी गर्दन वाले है, जो सर पर रूद्र को धारण किये हुए है, नदिया जिनकी भुजाए है, सर्प जिनकी उंगलिया है और जो तारो को नख के रूप में धारण करते है|

भ्रूमध्यसंस्थितकरो ब्रह्मविद्यामदोत्कटः ।
व्योमनाभिः श्रीहृदयो मेरुपृष्ठोऽर्णवोदरः ॥ २४ ॥

अर्थ:- सिद्धांत जिनकी भौहो के मध्य शुण्ड रूप में है, जो प्रचुर बुद्धि वाले है, आकाश रुपी नाभि वाले है, श्री/सौभाग्य रूपी हृदय वाले है, मेरु पर्वत जिनके नितंभ है, समुन्द्र जिनके उदर का जल है|

कुक्षिस्थयक्षगन्धर्वरक्षःकिन्नरमानुषः ।
पृथ्वीकटिः सृष्टिलिङ्गः शैलोरुर्दस्रजानुकः ॥ २५ ॥

अर्थ:- यक्ष, गंधर्व, राक्षस, किन्नर और मनुष्य जिनकी नाड़ीया है, पृथ्वी जिनके कटिभाग (कमर) के रूप में है, सृष्टी जिनकी जननेद्रिय है, पर्वत जिनकी जंघा है और दोनों अश्विनीकुमार जिनके दोनों घुटने है|

पातालजङ्घो मुनिपात्कालाङ्गुष्ठस्त्रयीतनुः ।
ज्योतिर्मण्डललाङ्गूलो हृदयालाननिश्चलः ॥ २६ ॥

अर्थ:- पाताल जिनकी दोनों एडियाँ है, मुनि जिनके चरण है, यम जिनका बड़ा अंगूठा है, तीनों वेद उनकी शेष देह के रूप में है, सूर्य जी की पूंछ है और जो भक्तों के हृदय में निवास करने वाले है|

हृत्पद्मकर्णिकाशालिवियत्केलिसरोवरः ।
सद्भक्तध्याननिगडः पूजावारीनिवारितः ॥ २७ ॥

अर्थ:- जो भक्तो के हृदयस्थल में क्रीडा का आनंद लेने वाले है, भक्तो की भक्तिरूपी बंधन में बंध जाने वाले है और जो भक्तो की प्रार्थना में बंधे रहने वाले है|

प्रतापी कश्यपसुतो गणपो विष्टपी बली ।
यशस्वी धार्मिकः स्वोजाः प्रथमः प्रथमेश्वरः ॥ २८ ॥

अर्थ:- जो पराक्रमी, ऋषि कश्यप के पुत्र है, साधुओ के रक्षक है, संसार के आधार है, शक्तिशाली एवम् बलिष्ठ है, महान एवम् कीर्तिवान है, धर्म-कर्म को प्रोत्साहित करने वाले है, ओजपूर्ण व्यक्तित्व वाले है, सर्वप्रथम पूजे जाने है और जो त्रिमूर्ति के स्वामी है|

चिन्तामणिद्वीपपतिः कल्पद्रुमवनालयः ।
रत्नमण्डपमध्यस्थो रत्नसिंहासनाश्रयः ॥ २९ ॥

अर्थ:- जो चिंतामणि नामक द्वीप के अधिपति है, कल्पवृक्ष के वन ने निवास करने वाले है, जो रत्न से सुसज्जित मंडप में विराजमान है, रत्न सिंहासन पर आरुढ़ रहने वाले है|

तीव्राशिरोधृतपदो ज्वालिनीमौलिलालितः ।
नन्दानन्दितपीठश्रीर्भोगदाभूषितासनः ॥ ३० ॥

अर्थ:- जो तीव्रा नामक पीठ-शक्ति पर चरण रखने वाले है, ज्वालिनी जिनकी पूजा करती है, नन्दानान्दिता पर अनुग्रह करने वाले है, जो भोगदा नामक सिंहासन पर विराजमान है|

सकामदायिनीपीठः स्फुरदुग्रासनाश्रयः ।
तेजोवतीशिरोरत्नं सत्यानित्यावतंसितः ॥ ३१ ॥

अर्थ:- जो कामदायिनी पीठ पर विराजमान है, जो उग्र आसन पर विराजने वाले है, जो तेजोवती को रत्न के रूप में धारण किये हुए है, सत्य जिनके चरणों में उपस्थित है/ सत्या नामक शक्ति नित्य जिनकी सेवा में उपस्थित है|

सविघ्ननाशिनीपीठः सर्वशक्त्यम्बुजाश्रयः ।
लिपिपद्मासनाधारो वह्निधामत्रयाश्रयः ॥ ३२ ॥

अर्थ:- जो विघ्नानाशिनी नामक शक्ति पर विराजित है, जो अष्ठ कमल दल पर विराजमान है, जो 50 अक्षरों से सुसज्जित कमल पर सुशोभित होने वाले है, कमल के मध्य विराजमान होने वाले|

उन्नतप्रपदो गूढगुल्फः संवृत्तपार्ष्णिकः ।
पीनजङ्घः श्लिष्टजानुः स्थूलोरुः प्रोन्नमत्कटिः ॥ ३३ ॥

अर्थ:- जिनके चरण कूर्म (कछुए) की पीठ के समान है, जिनके टखने छिपे हुए है, जिनके पैरों के तलवे अर्धवृताकार है, जिनके टखने के नीचे का भाग मांसल है, सुंदर घुटनों वाले, मोटी जंघा वाले और जिनकी कमर समृद्धि को सूचित करती है|

निम्ननाभिः स्थूलकुक्षिः पीनवक्षा बृहद्भुजः ।
पीनस्कन्धः कम्बुकण्ठो लम्बोष्ठो लम्बनासिकः ॥ ३४ ॥

अर्थ:- जो अत्यंत गहरी नाभि वाले है, विशाल उदर वाले है, सुदृढ़ वक्षस्थल वाले है, बलवान हाथो वाले है, बलिष्ठ भुजाओ वाले है, दक्षिणावर्ती शंख के समान गर्दन वाले है, लटकते हुए होंठो वाले है, लम्बी नासिका वाले है|

भग्नवामरदस्तुङ्गसव्यदन्तो महाहनुः ।
ह्रस्वनेत्रत्रयः शूर्पकर्णो निबिडमस्तकः ॥ ३५ ॥

अर्थ:- जिनका बाया दांत खंडित है, जिनकी ठोड़ी अत्यंत विशाल है, जिनका एक छोटा त्रिनेत्र है, सर्प (शूर्प) के समान कानो वाले, जो कठोर मस्तक वाले है|

स्तबकाकारकुम्भाग्रो रत्नमौलिर्निरङ्कुशः ।
सर्पहारकटीसूत्रः सर्पयज्ञोपवीतवान् ॥ ३६ ॥

अर्थ:- जिनके मस्तक का अग्रभाग पुष्पों के गुच्छे के समान है, रत्न जडित मुकुट धारण किये हुए है, जो परम स्वतंत्र है, सर्पाकार कटिसूत्र (मेखला) धारण करने वाले, जो सर्पाकार यज्ञोपवीत धारण करने वाले है|

सर्पकोटीरकटकः सर्पग्रैवेयकाङ्गदः ।
सर्पकक्ष्योदराबन्धः सर्पराजोत्तरीयकः ॥ ३७ ॥

अर्थ:- सर्प को मुकुट और कंगन के रूप में धारण करने वाले है, सर्प को हार एवम् बाजुबंध क्र रूप में धारण करने वाले है, सर्प को कमरबंध के रूप में धारण करने वाले है, और जो वासुकि नाग को उत्तरीय वस्त्र के रूप में धारण करने वाले है|

रक्तो रक्ताम्बरधरो रक्तमाल्यविभूषणः ।
रक्तेक्षणो रक्तकरो रक्तताल्वोष्ठपल्लवः ॥ ३८ ॥

अर्थ:- जो रक्तवर्ण वाले है, लाल रंग के वस्त्र धारण करने वाले है, लाल रंग के पुष्पों की माला एवम् आभूषण धारण करने वाले है, लाल नेत्रों वाले है|

श्वेतः श्वेताम्बरधरः श्वेतमाल्यविभूषणः ।
श्वेतातपत्ररुचिरः श्वेतचामरवीजितः ॥ ३९ ॥

अर्थ:- श्वेतवर्ण वाले है, श्वेतवस्त्र धारण करने वाले है, श्वेत माला एवम् श्वेत आभूषणों से सुशोभित, श्वेत छत्र के नीचे विराजमान और जिनकी श्वेत चंवर से हवा की जाती है|

सर्वावयवसम्पर्णसर्वलक्षणलक्षितः ।
सर्वाभरणशोभाढ्यः सर्वशोभासमन्वितः ॥ ४० ॥

अर्थ:- जो सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार शुभ लक्षणों से पूर्ण है, जो सुंदर एवम् सुसजित है, जिनके सभी अंग प्राकृतिक रूप से सुंदर है|

सर्वमङ्गलमाङ्गल्यः सर्वकारणकारणम् ।
सर्वदैककरः शार्‍ङ्गी बीजापूरी गदाधरः ॥ ४१ ॥

अर्थ:- जो शुभ सूचकों में परम शुभ है, जो समस्त कारणों के कारण है, उदार हस्त वाले, शारंगी धनुष धारण करने वाले, हाथ में अनार धारण करने वाले और जो गदाधारी है|

इक्षुचापधरः शूली चक्रपाणिः सरोजभृत् ।
पाशी धृतोत्पलः शालीमञ्जरीभृत् स्वदन्तभृत् ॥ ४२ ॥

अर्थ:- गन्ने का धनुष धारण करने वाले, त्रिशूल धारण करने वाले, हाथ में चक्र धारण करने वाले, हाथ में उत्पल (नीलकमल) धारण करने वाले, हाथ में धन की बाली धारण करने वाले, हाथ में स्वयं का खंडित दांत धारण करने वाले|

कल्पवल्लीधरो विश्वाभयदैककरो वशी ।
अक्षमालाधरो ज्ञानमुद्रावान् मुद्गरायुधः ॥ ४३ ॥

अर्थ:- हाथ में कल्पलता धारण करने वाले, सम्पूर्ण विश्व में भक्तो का भय नष्ट करने वाले, वश में करने वाले, अक्षमाला धारण करने वाले, ज्ञान के सूचक और जो मुद्गर को अस्त्र के रूप में धारण करने वाले है|

पूर्णपात्री कम्बुधरो विधृतालिसमुद्गकः ।
मातुलुङ्गधरश्चूतकलिकाभृत्कुठारवान् ॥ ४४ ॥

अर्थ:- मधुर चावलों से भरा कलश धारण करने वाले, जिनके गालो में बहता शहद भ्रमरों को आकर्षित करता है, जिनके हाथ में मातुलिंग फल (बिजौरा निम्बू) है, आम के छोटे पत्ते धारण करने वाले, कुठार धारण करने वाले|

पुष्करस्थस्वर्णघटीपूर्णरत्नाभिवर्षकः ।
भारतीसुन्दरीनाथो विनायकरतिप्रियः ॥ ४५ ॥

अर्थ:- जिनके हाथ में रत्नों के स्वर्ण पात्र है, जो देवी सरस्वती और पार्वती के साथ विराजमान है, मन्मथ के प्रिय|

महालक्ष्मीप्रियतमः सिद्धलक्ष्मीमनोरमः ।
रमारमेशपूर्वाङ्गो दक्षिणोमामहेश्वरः ॥ ४६ ॥

अर्थ:- महालक्ष्मी के प्रिय, सिद्धलक्ष्मी को मोहित करने वाले, आवरण देवताओ में जिनके पूर्व भाग में श्री उमा-महेश्वर जी विराजमान होते है, आवरण देवताओं में जिनके दक्षिण भाग में श्री लक्ष्मी-विष्णु जी विराजमान होते है|

महीवराहवामाङ्गो रतिकन्दर्पपश्चिमः ।
आमोदमोदजननः सप्रमोदप्रमोदनः ॥ ४७ ॥

अर्थ:- आवरण देवताओं में जिनके उत्तर भाग में श्री भूमिदेवी एवम् वराहदेव विराजमान होते है, आवरण देवताओँ के जिनके पश्चिम भाग में रति एवं मन्मथ (कामदेव) विराजमान होते है, जो आमोद को भी हर्ष देने वाले है और जो प्रमोद को भी सुख देने वाले है|

समेधितसमृद्धश्रीरृद्धिसिद्धिप्रवर्तकः ।
दत्तसौमुख्यसुमुखः कान्तिकन्दलिताश्रयः ॥ ४८ ॥

अर्थ:- समृद्धिदेवी को भी समृद्धि प्रदान करने वाले है. ऋद्धि-सिद्धि के प्रवर्तक/ ऋद्धि-सिद्धि को आशीष प्रदान करने वाले है, भक्तो को वर आशीष प्रदान करने वाले है, सुमुख गणपति के रूप में कान्ति को प्रसन्न करने वाले है|

मदनावत्याश्रिताङ्घ्रिः कृत्तदौर्मुख्यदुर्मुखः ।
विघ्नसम्पल्लवोपघ्नसेवोन्निद्रमदद्रवः ॥ ४९ ॥

अर्थ:- जो मदनवाती के द्वारा पूजे जाने वाले है, दुर्मुख गणपति का क्रोध शांत करने वाले है, विघ्नगणपति के गुणों का स्तोत्र और जो मदद्रवा देवी द्वारा पूजनीय है|

विघ्नकृन्निघ्नचरणो द्राविणीशक्तिसत्कृतः ।
तीव्राप्रसन्ननयनो ज्वालिनीपालितैकदृक् ॥ ५० ॥

अर्थ:- जो विघ्नकृत की भक्ति के कारण अपनी चरणों की सेवा प्रदान करने वाले है, देवी द्राविणी की भक्ति से प्रसन्न होने वाले, तीव्रा से प्रसन्न होने वाले, ज्वालिनी के प्रति अति सतर्क रहने वाले|

मोहिनीमोहनो भोगदायिनीकान्तिमण्डितः ।
कामिनीकान्तवक्त्रश्रीरधिष्ठितवसुन्धरः ॥ ५१ ॥

अर्थ:- जो अपनी सुन्दरता से मोहिनी को भी आकर्षित करने वाले है, भोगदायिनीशक्ति के तेज से प्रभावित, कामिनी शक्ति के मुख पर तेज के रूप में रहने वाले और जो वसुंधरा देवी के आधार है|

वसुन्धरामदोन्नद्धमहाशङ्खनिधिप्रभुः ।
नमद्वसुमतीमौलिमहापद्मनिधिप्रभुः ॥ ५२ ॥

अर्थ:- जो शंखनिधि (जो वसुंधरा का ही भाग है) द्वारा प्रशसनीय है, जो वसुमती एवम् महापद्म द्वारा पूजनीय है|

सर्वसद्गुरुसंसेव्यः शोचिष्केशहृदाश्रयः ।
ईशानमूर्धा देवेन्द्रशिखा पवननन्दनः ॥ ५३ ॥

अर्थ:- समस्त गुरुओ द्वारा पूजे जाने वाले, जिनके हृदय में शिवगणों के द्वारा स्थान प्राप्त होता है, ईशान द्वारा पूजे जाने वाले, जिनको देवराज इंद्र प्रणाम करते है, जो वायुदेव के पुत्र है|

अग्रप्रत्यग्रनयनो दिव्यास्त्राणाम्प्रयोगवित् ।
ऐरावतादिसर्वाशावारणावरणप्रियः ॥ ५४ ॥

अर्थ:- खगोलीय पिंड जिनके नेत्र है, जो धनुर्विद्या में पारंगत है, जो हाथियों (विशेषकर एरावत) को प्रिय है|

वज्राद्यस्त्रपरीवारो गणचण्डसमाश्रयः ।
जयाजयपरीवारो विजयाविजयावहः ॥ ५५ ॥

अर्थ:- जो इंद्र एवम् अन्य की भांति वज्र धारण करने वाले है, गणचंड को साहस प्रदान करने वाले है, जिनके साथ जय और विजय रहते है, जो विजय को विजय प्रदान करने वाले है|

अजितार्चितपादाब्जो नित्यानित्यावतंसितः ।
विलासिनीकृतोल्लासः शौण्डीसौन्दर्यमण्डितः ॥ ५६ ॥

अर्थ:- जिनके चरण कमल अजीत द्वारा पूजे जाते है, नित्या नाम की शक्ति नित्य जिनके चरणकमलो में उपस्थित है, विलासिनी की श्रद्धा से प्रसन्न रहने वाले, शौण्डी शक्ति के सौन्दर्य में वृद्धि करने वाले है|

अनन्तानन्तसुखदः सुमङ्गलसुमङ्गलः ।
इच्छाशक्तिज्ञानशक्तिक्रियाशक्तिनिषेवितः ॥ ५७ ॥

अर्थ:- जो सुख प्रदान करने वाले है, आनंद-मंगल प्रदान करने वाले है, और इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति एवं क्रियाशक्ति जिनके आधीन है|

सुभगासंश्रितपदो ललिताललिताश्रयः ।
कामिनीकामनः काममालिनीकेलिलालितः ॥ ५८ ॥

अर्थ:- सुभगा नामक चरण वाले, ललिता द्वारा पूजे जाने वाले, कामिनी से प्रसन्न होने वाले है और जो काममालिनी के प्रभाव में आनंदित रहने वाले है|

सरस्वत्याश्रयो गौरीनन्दनः श्रीनिकेतनः ।
गुरुगुप्तपदो वाचासिद्धो वागीश्वरीपतिः ॥ ५९ ॥

अर्थ:- देवी सरस्वती द्वारा पूजे जाने वाले, माता गौरी के पुत्र, जिनमे देवी लक्ष्मी का निवास है, जिनका चरण गुरुओ द्वारा आलिंगन किये जाने से ढका हुआ है, जिनके वाणी सिद्ध है अर्थात जो बोले वही घटित हो जाता है और जो देवी वागीश्वरी के स्वामी है|

नलिनीकामुको वामारामो ज्येष्ठामनोरमः ।
रौद्रीमुद्रितपादाब्जो हुम्बीजस्तुङ्गशक्तिकः ॥ ६० ॥

अर्थ:- जो नलिनी शक्ति के प्रियतम है, वामा नामक शक्ति जिनकों प्रिय है, ज्येष्ठा नामक शक्ति के मन को मोहने वाले, रौद्री शक्ति द्वारा जिनके चरण-कमल पूजे जाते है, हुम् जिनका बीज मंत्र है और जो अनंत शक्ति वाले है|

विश्वादिजननत्राणः स्वाहाशक्तिः सकीलकः ।
अमृताब्धिकृतावासो मदघूर्णितलोचनः ॥ ६१ ॥

अर्थ:- जो आत्मा एवं परमात्मा के रक्षक है, जो साक्षात स्वाहा शक्ति है, जो मृत्युंजय मंत्र एवं गयात्री मन्त्र के सार है, जो अमृत के सागर में निवास करने वाले है और जो सजल नेत्रों वाले है|

उच्छिष्टगण उच्छिष्टगणेशो गणनायकः ।
सार्वकालिकसंसिद्धिर्नित्यशैवो दिगम्बरः ॥ ६२ ॥

अर्थ:- जिनके गण अति शिष्ट एवं विद्वान है, शिष्ट एवं उत्कृष्ट गणों पर शासन करने वाले, समस्त गणों के नायक, अनंत सिद्धियों के डाटा, निरंतर शिव का ध्यान करने वाले और जो समस्त दिशाओ को वस्त्र के रूप में धारण करने वाले है|

अनपायोऽनन्तदृष्टिरप्रमेयोऽजरामरः ।
अनाविलोऽप्रतिरथो ह्यच्युतोऽमृतमक्षरम् ॥ ६३ ॥

अर्थ:- जो अनंत अविनाशी है, अनंत ज्ञान दृष्टी वाले/ दूरदर्शी, जो प्रमाण का विषय नही है/ अकारण कोई कार्य ना करने वाले, जो आयु एवं मृत्यु के बन्धनों से मुक्त है, जो सर्वथा शुद्ध है, जो अतुलनीय है, जो शाश्वत है, जो अमृत के समान है और जो सर्वव्यापी है|

अप्रतर्क्योऽक्षयोऽजय्योऽनाधारोऽनामयोऽमलः ।
अमोघसिद्धिरद्वैतमघोरोऽप्रमिताननः ॥ ६४ ॥

अर्थ:- जिन्हें परिभाषित ना किया जा सके, जो अजर-अमर है, जो अजय है, जिन्हें किसी आधार की अवश्यकता नही है, जो समस्त रोगों से मुक्त है, जो दोषरहित तथा पापरहित है, जिनकी सिद्धि अमोघ है/ जिनके समस्त कार्य सिद्ध होते है, जो स्वयं अद्वैत है, जो अभय है और जो अनंत मुख वाले है|

अनाकारोऽब्धिभूम्यग्निबलघ्नोऽव्यक्तलक्षणः ।
आधारपीठ आधार आधाराधेयवर्जितः ॥ ६५ ॥

अर्थ:- जो आकार रहित/ निराकार है, पृथ्वी, समुन्द्र एवं अग्नि के अहंकार को नष्ट करने वाले है, जो स्वयं सृष्टी एवं संहार का स्वरूप है, सिद्धांतो के आसन पर विराजने वाले, वसुदेव एवं ब्रह्मदेव के आधार और जिनका कोई आधार नही या आधारशुन्य है|

आखुकेतन आशापूरक आखुमहारथः ।
इक्षुसागरमध्यस्थ इक्षुभक्षणलालसः ॥ ६६ ॥

अर्थ:- जिनके ध्वज पर मूषक का चिन्ह अंकित है, समस्त आशाओ की पूर्ति करने वाले, मूषक जिनका रथ खींचता है, जो गन्ने के रस के सागर के मध्य विराजमान है और जिन्हें गन्ने का सेवन करना अत्यंत प्रिय है|

इक्षुचापातिरेकश्रीरिक्षुचापनिषेवितः ।
इन्द्रगोपसमानश्रीरिन्द्रनीलसमद्युतिः ॥ ६७ ॥

अर्थ:- जो मन्मथ (कामदेव) से भी अधिक सुंदर है, कामदेव जिनकी पूजा करते है, इंद्रगोप नामक कीट के समान वर्ण वाले और जो नीलमणि के समान सुन्दरता वाले है|

इन्दीवरदलश्यामः इन्दुमण्डलनिर्मलः ।
इध्मप्रिय इडाभाग इडाधामेन्दिराप्रियः ॥ ६८ ॥

अर्थ:- नीलकंठ पुष्प की भांति श्यामवर्ण वाले, चन्द्रमा के समान कान्ति वाले, जिनको हवन की समिधा प्रिय है, जो स्वयं पृथ्वी स्वरूप है, जिनके धाम में पृथ्वी निवास करती है और जो देवी लक्ष्मी को प्रिय है|

इक्ष्वाकुविघ्नविध्वंसी इतिकर्तव्यतेप्सितः ।
ईशानमौलिरीशान ईशानसुत ईतिहा ॥ ६९ ॥

अर्थ:- इक्ष्वाकु वंश के विघ्न नष्ट करने वाले, कर्तव्यो का पालन करने वाले को पुरस्कार देने वाले, देवो के देव/ सम्राटो के पूजनीय, देवो में सर्वश्रेष्ट, भगवान शंकर के पुत्र और फसलो को समस्त प्रकार के रोगों एवं विपदाओ से रक्षा करने वाले|

ईषणात्रयकल्पान्त ईहामात्रविवर्जितः ।
उपेन्द्र उडुभृन्मौलिरुण्डेरकबलिप्रियः ॥ ७० ॥

अर्थ:- भौतिक कामनाओ के प्रति वैराग्य उत्पन्न करने वाले, जो समस्त इच्छाओ से रहित है, कश्यप-अदिति के यहाँ बालक के रूप में अवतरित होने वाले, अपने मस्तक पर चन्द्रमा धारण करने वाले और जिन्हें उन्देरकबली नामक मिष्ठान प्रिय है|

उन्नतानन उत्तुङ्गः उदारत्रिदशाग्रणीः ।
ऊर्जस्वानूष्मलमद ऊहापोहदुरासदः ॥ ७१ ॥

अर्थ:- विशाल मुख वाले, अत्यंत विशाल देह वाले, जो सर्वश्रेष्ट है, असीमित उर्जा वाले, जिनकी देह में गर्म (उष्म) मद प्रवाहित होता है और जो समस्त तर्क वितर्क से परे है|

ऋग्यजुःसामसम्भूतिरृद्धिसिद्धिप्रवर्तकः ।
ऋजुचित्तैकसुलभः ऋणत्रयविमोचकः ॥ ७२ ॥

अर्थ:- वेदों को प्रकट करने वाले, ऋद्धि-सिद्धि प्रदान करने वाले, सद्गुणी भक्तो को सरलता से प्राप्त होने वाले, देवऋण, ऋषिऋण तथा पितृऋण से मुक्त करने वाले|

लुप्तविघ्नः स्वभक्तानां लुप्तशक्तिः सुरद्विषाम् ।
लुप्तश्रीर्विमुखार्चानां लूताविस्फोटनाशनः ॥ ७३ ॥

अर्थ:- अपने भक्तो की समस्त विघ्न-बाधाओ का नाश करने वाले, दैत्यों की शक्ति का नाश करने वाले, अधर्मियों की समृद्धि नष्ट करने वाले, लूता विस्फोट नामक रोग को नष्ट करने वाले|

एकारपीठमध्यस्थः एकपादकृतासनः ।
एजिताखिलदैत्यश्रीरेधिताखिलसंश्रयः ॥ ७४ ॥

अर्थ:- जो त्रिकोणचन्द्र के मध्य विराजमान है, अपना एक चरण दुरासत दैत्य के सर पर रखने वाले, दैत्यों की समृद्धि नष्ट करने वाले और भक्तो के वैभव में वृद्धि करने वाले|

ऐश्वर्यनिधिरैश्वर्यमैहिकामुष्मिकप्रदः ।
ऐरम्मदसमोन्मेषः ऐरावतनिभाननः ॥ ७५ ॥

अर्थ:- समस्त एश्वर्य के स्वामी, जो स्वयं एश्वर्य स्वरूप है, परम शान्ति प्रदान करने वालें. विद्युत के समान तेज वाले और जिनका मुख एरावत हाथी के समान है|

ओङ्कारवाच्य ओङ्कार ओजस्वानोषधीपतिः ।
औदार्यनिधिरौद्धत्यधुर्य औन्नत्यनिस्वनः ॥ ७६ ॥

अर्थ:- जो ॐ मंत्र का सार है, अतुलनीय तेज वाले, औषधि के अधिपति, भक्तो पर कृपा करने वाले, महानता प्रदर्शित करने वाले/ अहंकार नष्ट करने वाले, तुरही (वाद्ययंत्र) के समान ध्वनि वाले|

अङ्कुशःसुरनागानामङ्कुशःसुरविद्विषाम् ।
अःसमस्तविसर्गान्तपदेषुपरिकीर्तितः ॥ ७७ ॥

अर्थ:- तीनों लोकों को नियंत्रित करने वाले, देवो की विद्या से द्वेष करने वाले (दैत्यों) पर नियन्त्रण करने वाले, सम्पूर्ण वर्णमाला जिनकी स्तुति है|

कमण्डलुधरः कल्पः कपर्दी कलभाननः ।
कर्मसाक्षी कर्मकर्ता कर्माकर्मफलप्रदः ॥ ७८ ॥

अर्थ:- कमंडलु धारण करने वाले, जो स्वयं प्रलय स्वरूप है, जटाजूट धारण करने वाले, गजमुख या हाथी के मुख वाले, सभी क्र कर्मो पर दृष्टि रखने वाले, कर्म करने की प्रेरणा दने वाले, क्रमानुसार फल देने वाले|

कदम्बगोलकाकारः कूष्माण्डगणनायकः ।
कारुण्यदेहः कपिलः कथकः कटिसूत्रभृत् ॥ ७९ ॥

अर्थ:- भक्तो के ह्रदय में निवास करने वाले, दुष्ट ग्रहों पर कठोर शासन करने वाले, करुना करने वाले, जो कपिल मुनि के रूप है, जो दार्शनिक एवं उत्तम वक्ता है, स्वर्ण का कटिसूत्र (कमरबंध) धारण करने वाले|

खर्वः खड्गप्रियः खड्गखातान्तस्थः खनिर्मलः ।
खल्वाटशृङ्गनिलयः खट्वाङ्गी खदुरासदः ॥ ८० ॥

अर्थ:- जो वामन स्वरूप है/ जो बालस्वरूप है, खड्ग धारण करने वाले, जो खड्ग में निवास करते है, जो निष्पाप है, वृक्ष रहित पहाड़ी पर निवास करने वाले, खट्वांग नामक अस्त्र धारण करने वाले, बिना भक्ति के जिन्हें प्राप्त नही किया जा सकता|

गुणाढ्यो गहनो गस्थो गद्यपद्यसुधार्णवः ।
गद्यगानप्रियो गर्जो गीतगीर्वाणपूर्वजः ॥ ८१ ॥

अर्थ:- जो सर्वगुण संपन्न है, जिन्हें सरलता से समझा नही जा सकता, जो ‘ग बीजाक्षर में विराजमान है, जो स्वयं वाणी, गद्य एवम् कविता का स्वरूप है, जिन्हें सामवेद का पाठ प्रिय है, जो गर्जना करने वाले है, संगीत आदि कलाओ के अस्तिव में आने से पहले जन्म लेने वाले या ललित कलाओ के पूर्वज|

गुह्याचाररतो गुह्यो गुह्यागमनिरूपितः ।
गुहाशयो गुहाब्धिस्थो गुरुगम्यो गुरोर्गुरुः ॥ ८२ ॥

अर्थ:- जिन्हें परोपकार प्रिय है/ अन्तर्मुखी रहने वाले, जो अत्यंत गोपनीय है, जिनकी महिमा वेदों में वर्णित है, गुफा में शयन करने वाले, हृदय रूपी गुफा (कन्दरा) में स्थित रहने वाले, जिन्हें मात्र गुरु के द्वारा ही जाना जा सकता हो, जो गुरुओं के भी गुरु है|

घण्टाघर्घरिकामाली घटकुम्भो घटोदरः ।
चण्डश्चण्डेश्वरसुहृच्चण्डीशश्चण्डविक्रमः ॥ ८३ ॥

अर्थ:- गले में विशाल घंटी की माला धारण करने वाले, विशाल मस्तक वाले, घट के समान उदर वाले, जो निर्भय या भयंकर है, जिन्हें चंडीकेश्वर (शिव) प्रिय है, शिव-पार्वती के प्रिय, पराक्रम द्वारा समस्त गणों को जीतने वाले|

चराचरपतिश्चिन्तामणिचर्वणलालसः ।
छन्दश्छन्दोवपुश्छन्दोदुर्लक्ष्यश्छन्दविग्रहः ॥ ८४ ॥

अर्थ:- चिंतामणि का मान-मर्दन (अभिमान नष्ट) करने वाले, जो स्वयं वेद श्रुतियो के रूप में है, वेदों को अपनी देह के रूप में धारण करने वाले, वेद भी जिनको पूर्ण रूप से जानने में असमर्थ है, जो स्वयं वेद स्वरूप है|

जगद्योनिर्जगत्साक्षी जगदीशो जगन्मयः ।
जपो जपपरो जप्यो जिह्वासिंहासनप्रभुः ॥ ८५ ॥

अर्थ:- जो इस सृष्टी के कारण है, जो इस सम्पूर्ण सृष्टी के साक्षी है, जो सम्पूर्ण सृष्टी में सर्वश्रेष्ठ है, जो स्वयं ही जगत के रूप में विद्यमान है, जो मंत्र के रूप में विद्यमान है, सदैव ध्यान/ जप में लीन रहने वाले, जो जप द्वारा पूजे जाने वाले है, जो वाणी एवम् वाक् शक्ति के स्वामी है|

झलज्झलोल्लसद्दानझङ्कारिभ्रमराकुलः ।
टङ्कारस्फारसंरावष्टङ्कारिमणिनूपुरः ॥ ८६ ॥

अर्थ:- जो भ्रमर द्वारा आकर्षित होने वाले है, धातुओ की टंकार जैसे ध्वनि करने वाले, छोटे-छोटे नुपूरो से सुसज्जित पायल धारण करने वाले|

ठद्वयीपल्लवान्तःस्थसर्वमन्त्रैकसिद्धिदः ।
डिण्डिमुण्डो डाकिनीशो डामरो डिण्डिमप्रियः ॥ ८७ ॥

अर्थ:- जो विधिवत पढ़े गये मंत्रो का उत्तर है, ढोल के समान मस्तक वाले, डाकिनी के स्वामी, ध्वनि उत्पन्न करने वाले और जिन्हें नगाड़े की ध्वनि प्रिय है|

ढक्कानिनादमुदितो ढौको ढुण्ढिविनायकः ।
तत्त्वानां परमं तत्त्वं तत्त्वं पदनिरूपितः ॥ ८८ ॥

अर्थ:- जिन्हें एडक्का वाद्य यंत्र की ध्वनि प्रिय है, भक्तो के समर्पण से प्रसन्न रहने वाले, विघ्न-बाधाओं को दूर करने वाले, जो समस्त सिद्धांतो में सर्वोच्च सिद्धांत है, भक्तो को सवैधानिक मार्ग पर चलाने वाले|

तारकान्तरसंस्थानस्तारकस्तारकान्तकः ।
स्थाणुः स्थाणुप्रियः स्थाता स्थावरं जङ्गमं जगत् ॥ ८९ ॥

अर्थ:- नेत्र की पुतलियो में निवास करने वाले, भवसागर से तारने वाले, तारकासुर का संहार करने वाले, को स्थिर है, जिन्हें स्थिरता प्रिय है/ शिव के पुत्र/ जो शिव को प्रिय है, अचल है, जो स्वयं चराचर जगत स्वरूप है|

दक्षयज्ञप्रमथनो दाता दानवमोहनः ।
दयावान् दिव्यविभवो दण्डभृद्दण्डनायकः ॥ ९० ॥

अर्थ:- दक्ष के यज्ञ का विध्वंश करने वाले, जो सर्वदाता है, राक्षसों को अचेतन स्थिति में रखने वाले, जो अत्यंत दयावान है, अनंत दैवीय शक्तियों वाले, हाथ में दंड धारण करने वाले और जो दंडनीति में पारंगत है|

दन्तप्रभिन्नाभ्रमालो दैत्यवारणदारणः ।
दंष्ट्रालग्नद्विपघटो देवार्थनृगजाकृतिः ॥ ९१ ॥

अर्थ:- अपने दांत के आघातों से मेघो को छिन्न-भिन्न करने वाले, छुपे हुए दानवो का अंत करने वाले, जिनके एक दांत में शत्रु का मस्तक स्थित है, देवताओं के कल्याण हेतु गजमुख धारण करने वाले|

धनधान्यपतिर्धन्यो धनदो धरणीधरः ।
ध्यानैकप्रकटो ध्येयो ध्यानम् ध्यानपरायणः ॥ ९२ ॥

अर्थ:- जो धन धान्य के अधिपति है, जिन्हें सभी धन्यवाद देते है/ जो धन संपन्न है, धन संपति प्रदान करने वाले, पृथ्वी को धारण करने वाले, ध्यान क्र द्वारा प्रकट होने वाले/ ध्यान दवरा मस्तक को शांत करने वाले, जिनका ध्यान करना चाहिए, जो स्वयं ध्यान स्वरूप है और जिन्हें ध्यान प्रिय है|

नन्द्यो नन्दिप्रियो नादो नादमध्यप्रतिष्ठितः ।
निष्कलो निर्मलो नित्यो नित्यानित्यो निरामयः ॥ ९३ ॥

अर्थ:- सदैव उत्साहित एवं आनंदित रहने वाले, जो नंदी को प्रिय है, जो स्वयं नाद स्वरूप है, संगीत एवं वाद्ययंत्रो के बीच प्रसन्न रहने वालें, स्वर्णाभूषण धारण करने वाले, जो पूर्णत पवित्र है, जो अनश्वर है, जो नश्वर-अनश्वर दोनों ही रूपों मे है, जो समस्त रोगों से मुक्त है| 

परं व्योम परं धाम परमात्मा परं पदम् ।
परात्परः पशुपतिः पशुपाशविमोचकः ॥ ९४ ॥

अर्थ:- जो आकाश मंडल के समान सर्वोच है, जो सर्वोच्च स्थान पर विराजमान है, जो स्वयं परमब्रह्म है, जो सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित है, श्रेष्ठो में भी सर्वश्रेष्ठ, समस्त प्राणियों के स्वामी, प्राणियों को विभिन्न प्रकार के पाश से मुक्त करने वाले|

पूर्णानन्दः परानन्दः पुराणपुरुषोत्तमः ।
पद्मप्रसन्ननयनः प्रणताऽज्ञानमोचनः ॥ ९५ ॥

अर्थ:- आनंद की वर्षा करने वाले, सदैव परमानंद प्रदान करने वाले, जो समस्त देवगणों में सर्वोच्च है, खिले हुए कमल पुष्प के समान नेत्रों वाले, भक्त के समस्त अज्ञान का नाश करने वाले|

प्रमाणप्रत्ययातीतः प्रणतार्तिनिवारणः ।
फलहस्तः फणिपतिः फेत्कारः फाणितप्रियः ॥ ९६ ॥

अर्थ:- जहाँ सत्य हो वही उपस्थित रहने वाले, भक्तो के कष्ट का निवारण करने वाले, तत्काल फल प्रदान करने वाले/ हाथ में फल लिए रहने वाले, सर्पो के स्वामी, जो स्वयं तंत्र स्वरूप है/ तंत्र में जिनकी स्तुति की गयी है, जिन्हें गन्ने का रस प्रिय है|

बाणार्चिताङ्घ्रियुगलो बालकेलिकुतूहली ।
ब्रह्म ब्रह्मार्चितपदो ब्रह्मचारी बृहस्पतिः ॥ ९७ ॥

अर्थ:- बाणासुर ने जिनके चरणकमलों की पूजा की थी, बाल क्रीडा का आनंद लेने वाले, जो स्वयं ब्रह्मा स्वरूप है, ब्रह्मा जिनके चरण कमलो की पूजा करते है, जो ब्रह्मचारी (वेदों का अध्ययन करने वाले) है, जो देवताओं के गुरु है/ जो स्वयं देवगुरु बृहस्पति स्वरूप है|

बृहत्तमो ब्रह्मपरो ब्रह्मण्यो ब्रह्मवित्प्रियः ।
बृहन्नादाग्र्यचीत्कारो ब्रह्माण्डावलिमेखलः ॥ ९८ ॥

अर्थ:- जो अत्यधिक विशालकाय है, जो स्वयं ब्रह्मा का स्वरूप है, ब्राहमणों पर श्रद्धा रखने वाले, जो विद्यार्थियों को प्रिय है, अत्यंत तीव्र ध्वनि उत्पन्न करने वाले, ब्रह्मांड को अपने कटिसूत्र के रूप में धारण करने वाले|

भ्रूक्षेपदत्तलक्ष्मीको भर्गो भद्रो भयापहः ।
भगवान् भक्तिसुलभो भूतिदो भूतिभूषणः ॥ ९९ ॥

अर्थ:- पलक झपकते ही भक्तो पर धनवर्षा करने वाले, सूर्य के समान तेज वाले, जो सर्वोतम एवं सभ्य है, भक्तो के ज्ञात-अज्ञात भय को नष्ट करने वाले, जो सर्वशक्तिमान परमात्मा है, जिन्हें भक्ति द्वारा सुगमता से प्राप्त किया जा सकता है, सुख सौभाग्य प्रदान करने वाले, भस्म धारण करने वाले|

भव्यो भूतालयो भोगदाता भ्रूमध्यगोचरः ।
मन्त्रो मन्त्रपतिर्मन्त्री मदमत्तमनोरमः ॥ १०० ॥

अर्थ:- जो अनंत एवं अति विशाल है, जिनमे सारे तत्व विद्यमान है, भक्तो को धन-एश्वर्य प्रदान करने वाले/ जीवो को क्रमानुसार फल प्रदान करने वाले, भौहो के मध्य ज्ञानपीठ के रूप में स्थित रहने वाले, जो स्वयं मंत्र स्वरूप है, जो समस्त मंत्रो के अधिपति है, समस्त मंत्रो के ज्ञाता एवं विचार-विमर्श करने वाले, जो आनंद में डूबे हुए अति सुंदर दिखाई देते है|

मेखलावान् मन्दगतिर्मतिमत्कमलेक्षणः ।
महाबलो महावीर्यो महाप्राणो महामनाः ॥ १०१ ॥

अर्थ:- कमर में मेखला (कमरबंध) धारण करने वाले, धीरे-धीरे चलने वाले, ज्ञानवान एवं कमल के समान नयन वाले, जो अत्यधिक बलशाली एवं शक्तिशाली है, जो अत्यंत वीर एवं साहसी है, जो समस्त जीवात्माओ के प्राण है, महान विचारधारा वाले|

यज्ञो यज्ञपतिर्यज्ञगोप्ता यज्ञफलप्रदः ।
यशस्करो योगगम्यो याज्ञिको याजकप्रियः ॥ १०२ ॥

अर्थ:- जो स्वयं यज्ञ स्वरूप है, जो यज्ञ के स्वामी है, जो यज्ञ के रक्षक है, यज्ञो का फल प्रदान करने वाले है, यश एवं प्रसिद्धी प्रदान करने वाले है, योग द्वारा प्राप्त होने वाले है, यज्ञ के अधिपति, जिन्हें यज्ञ प्रिय है|

रसो रसप्रियो रस्यो रञ्जको रावणार्चितः ।
रक्षोरक्षाकरो रत्नगर्भो राज्यसुखप्रदः ॥ १०३ ॥

अर्थ:- जो प्रत्येक रस में विद्यमान है, जिन्हें रस प्रिय है, जिनके स्मरण से आनंद की अनुभूति होती है, हर्ष एवं आनंद प्रदान करने वाले, रावण द्वारा पूजे जाने वाले, राक्षसों की रक्षा करने वाले, जिनके उदर में रत्न स्थित है, जो राज्यसुख प्रदान करने वाले है|

लक्ष्यं लक्षप्रदो लक्ष्यो लयस्थो लड्डुकप्रियः ।
लानप्रियो लास्यपरो लाभकृल्लोकविश्रुतः ॥ १०४ ॥

अर्थ:- जो समस्त प्राणियों का उद्देश्य है, सफलतापूर्वक लक्ष्य तक पहुचाने वाले, जो स्वयं परम लक्ष्य है, जो प्रत्येक लय में विद्यमान है, जिन्हें लड्डू अत्यंत प्रिय है, जिन्हें निरंतर गति अति प्रिय है, जिन्हें नृत्य प्रिय है, शुभ फल प्राप्ति हेतु पूजे जाने वाले|

वरेण्यो वह्निवदनो वन्द्यो वेदान्तगोचरः ।
विकर्ता विश्वतश्चक्षुर्विधाता विश्वतोमुखः ॥ १०५ ॥

अर्थ:- जो समस्त प्राणियों को प्रिय है, जिनकी देह में अग्नि के समान तेज है, जो साष्टांग प्रणाम करने योग्य है, उपनिषदों को जानने वाले, भक्तो को सहायता करने वाले, संसार को अपने नेत्रों के रूप में धारण करने वाले, जो स्वयं ब्रह्मा रूप में विराजमान है|

वामदेवो विश्वनेता वज्रिवज्रनिवारणः ।
विश्वबन्धनविष्कम्भाधारो विश्वेश्वरप्रभुः ॥ १०६ ॥

अर्थ:- जो स्वयं वामदेव/ शिव स्वरूप है, सम्पूर्ण विश्व का नेतृत्व करने वाले, वज्र को नियंत्रित करने की शक्ति रखने वाले, सांसारिक मोह-माया से मुक्त करने वाले, भगवान शिव के अधिपति|

शब्दब्रह्म शमप्राप्यः शम्भुशक्तिगणेश्वरः ।
शास्ता शिखाग्रनिलयः शरण्यः शिखरीश्वरः ॥ १०७ ॥

अर्थ:- जो ब्रह्मा स्वरूप नाद में विद्यमान है, जिन्हें अनुसासन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, शिव एवं शक्ति के गणों के स्वामी, दुर्गुणों को दूर करने वाले, शाखा के अग्रभाग में निवास करने वाले, जिनकी शरण में जाना चाहिए/ शरणागत वत्सल, पर्वतों के स्वामी|

षडृतुकुसुमस्रग्वी षडाधारः षडक्षरः ।
संसारवैद्यः सर्वज्ञः सर्वभेषजभेषजम् ॥ १०८ ॥

अर्थ:- प्रत्येक ऋतु में खिले रहने वाले फूलो की माला धारण करने वाला, मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध आज्ञा आदि षट्चक्र के आधार, जो स्वयं षडक्षर स्वरूप है, जो समस्त सृष्टी के चिकित्श्क है, सब कुछ जानने वाले, जो समस्त औषधियों की औषधि|

सृष्टिस्थितिलयक्रीडः सुरकुञ्जरभेदनः ।
सिन्दूरितमहाकुम्भः सदसद्व्यक्तिदायकः ॥ १०९ ॥

अर्थ:- जिनके सृष्टी का सृजन एवं विनाश ही क्रीडा है, हाथियों को वश में करने वाले, विशाल मस्तक पर सिन्दूर धारण करने वाले, भक्तो को सद्बुद्धि प्रदान करने वाले|

साक्षी समुद्रमथनः स्वसंवेद्यः स्वदक्षिणः ।
स्वतन्त्रः सत्यसङ्कल्पः सामगानरतः सुखी ॥ ११० ॥

अर्थ:- सृष्टी की समस्त गतिविधियों के साक्षी, समुन्द्र मंथन करने वाले, स्वयं को जानने वाले, जो स्वयं सर्व समर्थ है, जो स्वतंत्र है, जो परम सत्य स्वरूप है, सामगान में तल्लीन रहने वाले|

हंसो हस्तिपिशाचीशो हवनं हव्यकव्यभुक् ।
हव्यो हुतप्रियो हर्षो हृल्लेखामन्त्रमध्यगः ॥ १११ ॥

अर्थ:- जो पवित्र है, हस्ति पिशाचि लिखे स्वाहा मंत्र के अधिपति/ दुर्जन हाथियों के स्वामी, जो स्वयं हवन स्वरूप है, यज्ञ आहुति एवं पितृ-पिंड ग्रहण करने वाले, जो हव्य स्वरूप है, सदैव प्रसन्नचित रहने वाले, हल्लेखा (ह्रीं) बीजमंत्र के मध्य वास करने वाले/ ध्यान में विराजमान रहने वाले|

क्षेत्राधिपः क्षमाभर्ता क्षमापरपरायणः ।
क्षिप्रक्षेमकरः क्षेमानन्दः क्षोणीसुरद्रुमः ॥ ११२ ॥

अर्थ:- जो भूमिक्षेत्र के अधिपति है, जो पृथ्वी के आधार है, जो क्षमाशील है, तत्क्षण कल्याण करने वाले है, भक्तो की प्रसन्नता से आनंदित होने वाले है, जो पृथ्वी पर कल्पवृक्ष के सामान है अथवा समस्त कामनाओ को पूर्ण करने वाले है|

धर्मप्रदोऽर्थदः कामदाता सौभाग्यवर्धनः ।
विद्याप्रदो विभवदो भुक्तिमुक्तिफलप्रदः ॥ ११३ ॥

अर्थ:- जो धर्म प्रदान करने वाले है, जो समस्त इच्छाओ की पूर्ति करने वाले है, जो सोभाग्य में वृद्धि करने वाले है, जो विद्या प्रदान करने वाले है, ख्याति प्रदान करने वाले है और जो सांसारिक सुख एवम् मुक्ति दोनों प्रदान करने वाले है|

आभिरूप्यकरो वीरश्रीप्रदो विजयप्रदः ।
सर्ववश्यकरो गर्भदोषहा पुत्रपौत्रदः ॥ ११४ ॥

अर्थ:- जो संपति और सौन्दर्य में वृद्धि करने वाले है, विजय प्रदान करने वाले है, सफलता प्रदान करने वाले है, सभी को वश में करने वाले है, गर्भ की रक्षा करने वाले है और संतति प्रदान करने वाले है|

मेधादः कीर्तिदः शोकहारी दौर्भाग्यनाशनः ।
प्रतिवादिमुखस्तम्भो रुष्टचित्तप्रसादनः ॥ ११५ ॥

अर्थ:- जो ज्ञान एवम् विशेषज्ञता प्रदान करने वाले है, कीर्ति प्रदान करने वाले है, दुःख का नाश करने वाले है, दुर्भाग्य का नाश करने वाले है, शत्रुओ का दमन करने वाले है और क्रोध को शांत करने वाले है|

पराभिचारशमनो दुःखभञ्जनकाराकः ।
लवस्त्रुटिः कला काष्ठा निमेषस्तत्परः क्षणः ॥ ११६ ॥

अर्थ:- जो दुसरो द्वारा उत्पन्न की गयी नकारात्मकता को नष्ट करने वाले है, जो समय की अति सूक्ष्म इकाई है, जो त्रुटीकालस्वरूप है, जो कलास्वरूप है, जो कष्ठस्वरूप है, जो निमेश स्वरूप है, जो तत्पर स्वरूप है और जो क्षणस्वरूप है|

घटी मुहूर्तं प्रहरो दिवानक्तमहर्निशम् ।
पक्षो मासोऽयनं वर्षं युगं कल्पो महालयः ॥ ११७ ॥

अर्थ:- जो घटी स्वरूप है, जो मुहूर्त स्वरूप है, जो प्रहर स्वरूप है, जो दिन स्वरूप है, जो रात्रि स्वरूप है, जो रात्रि एवम् दिवस का प्रतिनिधित्व करते है, जो पक्ष स्वरूप है, जो माह स्वरूप है, जो अयन स्वरूप है, जो वर्ष स्वरूप है, जो युग स्वरूप है, जो कल्प स्वरूप है और जो सुक्ष्मकाल और महाकाल है|

राशिस्तारा तिथिर्योगो वारः करणमंशकम् ।
लग्नं होरा कालचक्रं मेरुः सप्तर्षयो ध्रुवः ॥ ११८ ॥

अर्थ:- जो राशिचक्र की समस्त राशियों का प्रतिनिधित्व करने वाले है, जो 27 नक्षत्र के रूप में विद्यमान है, जो पंचाग की समस्त तिथियों के स्वरूप है, जो पंचाग के योग के स्वरूप में विद्यमान है, जो सप्ताह के सात वार के रूप में विद्यमान है, जो पंचाग में करण के रूप विद्यमान है, ज्योतिष के समस्त अंशो के रूप में रहने वाले, नवांश आदि, ज्योतिष में लगन का प्रतिनिधित्व करने वाले, ज्योतिष में होरा चक्र के रूप में विद्यमान रहने वाले, जो स्वयं काल का रूप है, जो मेरु के पर्वत रूप में विद्यमान है, जो सप्तऋषि स्वरूप है, जो ध्रुव तारे के रूप में विद्यमान है| 

राहुर्मन्दः कविर्जीवो बुधो भौमः शशी रविः ।
कालः सृष्टिः स्थितिर्विश्वं स्थावरं जङ्गमं च यत् ॥ ११९ ॥

अर्थ:- जो राहु स्वरूप है, जो शनि ग्रह स्वरूप है, जो शुक्र ग्रह स्वरूप है, जो बृहस्पति ग्रह स्वरूप है, जो बुद्ध ग्रह स्वरूप है, जो मंगल ग्रह स्वरूप है, जो चन्द्र ग्रह स्वरूप है, जो सूर्य ग्रह स्वरूप है, जो सृष्टी का संहार करने वाले है, जो सृष्टी की रचना करने वाले है, जो सृष्टी के रचना करने वाले है और जो इस सम्पूर्ण चराचर में स्थित है|

भूरापोऽग्निर्मरुद्व्योमाहङ्कृतिः प्रकृतिः पुमान् ।
ब्रह्मा विष्णुः शिवो रुद्रः ईशः शक्तिः सदाशिवः ॥ १२० ॥

अर्थ:- जो पृथ्वी स्वरूप है, जो जल स्वरूप है, जो अग्नि स्वरूप है, जो वायु स्वरूप है, जो आकाश स्वरूप है, जो अहंकार स्वरूप है, जो प्रकृति स्वरूप है, जो पुरुष स्वरूप है, जो ब्रह्मा स्वरूप है, जो विष्णु स्वरूप है, जो शिव स्वरूप है, जो रूद्र स्वरूप है, जो ईश्वर स्वरूप है, जो शक्ति स्वरूप है, जो सदाशिव स्वरूप है|

त्रिदशाः पितरः सिद्धा यक्षा रक्षांसि किन्नराः ।
साध्या विद्याधरा भूता मनुष्याः पशवः खगाः ॥ १२१ ॥

अर्थ:- स्वर्ग में निवास करने वाले है, जो पितृ स्वरूप है, जो सिद्धि स्वरूप है, जो यक्ष स्वरूप है, जो राक्षस स्वरूप है, जो किन्नर स्वरूप है, जो साधक स्वरूप है, जो विद्याधर स्वरूप है, जो स्वयं भूतगणों के रूप है, जो मनुष्य स्वरूप है, जो पशु स्वरूप है और जो पक्षी स्वरूप है|

समुद्राः सरितः शैलाः भूतं भव्यं भवोद्भवः ।
साङ्ख्यं पातञ्जलं योगः पुराणानि श्रुतिः स्मृतिः ॥ १२२ ॥

अर्थ:- जो समुन्द्र के रूप में विद्यमान है, जो नदियों के रूप में प्रवाहित होते है, जो पर्वत स्वरूप है, जो भूतकाल स्वरूप है, जो भविष्य स्वरूप है, जो सृष्टी के उत्पत्ति का कारण है, जो सांख्य दर्शन स्वरूप है, जो पतंजलि योगसूत्र स्वरूप है, जो योग दर्शन स्वरूप है, जो पुराण स्वरूप है, जो वेद स्वरूप है और जो स्मृति ग्रन्थ स्वरूप है|

वेदाङ्गानि सदाचारो मीमांसा न्यायविस्तरः ।
आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वं काव्यनाटकम् ॥ १२३ ॥

अर्थ:- जो वेदांग स्वरूप है, जो सदाचारी है, जो मीमांसा दर्शन स्वरूप है, जो न्याय दर्शन स्वरूप है, जो आयुर्वेद दर्शन स्वरूप है, जो धनुर्वेद स्वरूप है, को गंधर्व वेद स्वरूप है और जो कवि एवम् नाटक स्वरूप है|

वैखानसं भागवतं सात्वतं पाञ्चरात्रकम् ।
शैवं पाशुपतं कालामुखं भैरवशासनम् ॥ १२४ ॥

अर्थ:- जो स्वयं सन्यासी स्वरूप है, जो स्वयं भागवत स्वरूप है, जो सात्वत तंत्र स्वरूप है, जो पञ्चरात्र स्वरूप है, जो शिव के उपासक है, जो शिव के पशुपति रूप की पूजा करते है, जो कालमुख संप्रदाय का मुख है और जो भैरव को नियंत्रित करने वाले है|

शाक्तं वैनायकं सौरं जैनमार्हतसंहिता ।
सदसद्व्यक्तमव्यक्तं सचेतनमचेतनम् ॥ १२५ ॥

अर्थ:- जो शाक्त संप्रदाय का रूप है, जिसका कोई स्वामी नही है, जो सौर स्वरूप है, जो जैन धर्म स्वरूप है, जो जैन धर्म के स्वामी है, जो परम सत्य है, जो अस्तित्वविहीन है, जो पूर्णत अप्रत्यक्ष है, जो प्रत्यक्ष है, जो सजीव है और जो निर्जीव है|

बन्धो मोक्षः सुखं भोगोऽयोगः सत्यमणुर्महान् ।
स्वस्ति हुं फट् स्वधा स्वाहा श्रौषड्वौषड्वषण्णमः ॥ १२६ ॥

अर्थ:- जो स्वयं बंधन है, जो मोक्ष है, जो सुख स्वरूप है, जो आनंद का स्तोत्र है, जो योग रहित है, जो स्वयं सत्य स्वरूप है, जो कण-कण में व्याप्त है, जो सर्वश्रेष्ट है, जो शुभ है, जो हुम बीजमंत्र में विद्यमान है, जो बीज मंत्र स्वरूप है, श्राद्ध कर्म में विद्यमान रहने वाले, जो यज्ञ कर्म स्वरूप है, जो ‘श्रौषट‘ मंत्र स्वरूप है, जो ‘वौषट’ मंत्र स्वरूप है, जो ‘वषट’ मन्त्र स्वरूप है|

ज्ञानं विज्ञानमानन्दो बोधः संविच्छमो यमः ।
एक एकाक्षराधारः एकाक्षरपरायणः ॥ १२७ ॥

अर्थ:- जो प्रणाम स्वरूप है, जो स्वयं ज्ञान स्वरूप है, जो विज्ञान स्वरूप है, जो आनंद स्वरूप है, जो बोध स्वरूप है, जो चेतना स्वरूप है, जो विन्रम स्वभाव वाले या सांसारिक विषयों से परे है, जो यम स्वरूप है, जो एकरूप है, जो एकाक्षर या ॐ में लीं रहने वाले है और जो एकाक्षर मन्त्र की शक्ति है|

एकाग्रधीरेकवीरः एकानेकस्वरूपधृक् ।
द्विरूपो द्विभुजो द्व्यक्षो द्विरदो द्वीपरक्षकः ॥ १२८ ॥

अर्थ:- जो एकवीर स्वरूप है अर्थात भगवान विष्णु और लक्ष्मी के पुत्र एकवीर स्वरूप है, जो एक अनेक समस्त रूपों में स्थित है, जो सगुण-निर्गुण दोनों रूपों में स्थित है, जो दो बुजाओ बाले, दो नेत्रों वाले, दो दंत वाले, हाथियों की रक्षा करने वाले है|

द्वैमातुरो द्विवदनो द्वन्द्वातीतो द्वयातिगः ।
त्रिधामा त्रिकरस्त्रेता त्रिवर्गफलदायकः ॥ १२९ ॥

अर्थ:- जिनकी दो माताए है, दो मुख वाले, जो भले-बुरे से परे है, जो दो पक्षों से परे है, स्वर्गलोक,पृथ्वीलोक और पाताललोक में निवास करने वाले, त्रिभुवन के रचयिता, त्रेतायुग में मोक्ष प्रदान करने वाले|

त्रिगुणात्मा त्रिलोकादिस्त्रिशक्तीशस्त्रिलोचनः ।
चतुर्बाहुश्चतुर्दन्तश्चतुरात्मा चतुर्मुखः ॥ १३० ॥

अर्थ:- जो सत्व, रजस और तम तीनों गुणों से युक्त है, तीनों लोकों का सुख प्रदान करने वाले, प्रभुशक्ति, उत्साहशक्ति और मंत्रशक्ति नामक त्रिशक्तियो के स्वामी, तीन नेत्र वाले, चार भुजाओ वाले, चार दांतों वाले, जो आत्मा, परमात्मा, अंतरात्मा और ज्ञानात्मा स्वरूप है, जो चार मुख वाले है|

चतुर्विधोपायमयश्चतुर्वर्णाश्रमाश्रयः ।
चतुर्विधवचोवृत्तिपरिवृत्तिप्रवर्तकः ॥ १३१ ॥

अर्थ:- साम, दाम, दंड और भेद आदि चार विद्याओ के ज्ञाता, जो चारो आश्रमों और चारो वर्णों के स्वामी है, जो चार प्रकार की वाणी (मध्यमा, पश्यन्ति, परा और बैखरी) के अधिपति है|

चतुर्थीपूजनप्रीतश्चतुर्थीतिथिसम्भवः ।
पञ्चाक्षरात्मा पञ्चात्मा पञ्चास्यः पञ्चकृत्यकृत् ॥ १३२ ॥

अर्थ:- चतुर्थी पर पूजन से प्रसन्न होने वाले, चतुर्थी तिथि पर प्रकट होने वाले, पंचाक्षर (अकार उकार, मकार, नाद और बिंदु) में निवास करने वाले, जो पंचात्मा (प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान) स्वरूप है, जो पांच मुख वाले है, जो पांच कार्य (सृष्टी, पालन, संहार, तिरोभाव अनुग्रह) करने वाले है|

पञ्चाधारः पञ्चवर्णः पञ्चाक्षरपरायणः ।
पञ्चतालः पञ्चकरः पञ्चप्रणवभावितः ॥ १३३ ॥

अर्थ:- प्रकृति के पंचतत्वो को धारण करने वाले, पांच रंग वाले, नित्य पंचाक्षर का जाप करने वाले, जो पंच्ताल स्वरूप है, जो पांच हाथो वाले या आकार में 120 अँगुल के है, जिन्हें पञ्च प्रणव के द्वारा अनुभव किया जा सकता है|

पञ्चब्रह्ममयस्फूर्तिः पञ्चावरणवारितः ।
पञ्चभक्ष्यप्रियः पञ्चबाणः पञ्चशिवात्मकः ॥ १३४ ॥

अर्थ:- जो सघोजात, वामदेव, तत्पुरुष, अघोर और ईशान आदि की शक्तियों से युक्त है, जिन्हें छुहारा, नारियल, बादाम, खसखस और शक्कर से निर्मित खाद्य पदार्थ प्रिय है, जो कामदेव के पंचबाणों (मदनस्वरूप, श्वेतकमल, अशोकपुष्प, आम्रमंजरी-नवमल्लिका एवं नीलकमल) में स्थित है, शिव के पांच रूपों (श्री, ह्रीं, क्लीं, ग्लौं, ग) में स्थित है|

षट्कोणपीठः षट्चक्रधामा षड्ग्रन्थिभेदकः ।
षडध्वध्वान्तविध्वंसी षडङ्गुलमहाह्रदः ॥ १३५ ॥

अर्थ:- जो षट्भुज आसन पर विराजमान होते है, षट्चक्रो (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा चक्र) में स्थित रहने वाले, छः प्रकार की ग्रन्थियो को भेदकर मुक्ति प्रदान करने वाले, छ प्रकार के अंधकारो को नष्ट करने वाले और जिनकी नाभि छः अँगुल गहरी है|

षण्मुखः षण्मुखभ्राता षट्छक्तिपरिवारितः ।
षड्वैरिवर्गविध्वंसी षडूर्मिभयभञ्जनः ॥ १३६ ॥

अर्थ:- जो छः शास्त्रों को मुख के रूप में धारण करने वाले है, जो छः प्रकार की शक्तियों (ऋद्धि, सिद्धि काँटी, मद्नावती, मद्रदवा, द्र्विणी) को धारण करने वाले, छः प्रकार के शत्रुओ (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) का नाश करने वाले, छः प्रकार के भय (भूख, प्यास, शोक, भ्रम, वृद्धावस्था, मृत्यु) से मुक्त करने वाले|

षट्तर्कदूरः षट्कर्मनिरतः षड्रसाश्रयः ।
सप्तपातालचरणः सप्तद्वीपोरुमण्डलः ॥ १३७ ॥

अर्थ:- जिनका वर्णन छः शस्त्र भी नही कर सकते, षट्कर्म (यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान, प्रतिग्रह) में लीं रहने वाले, जो छः रस (मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, कसाय) में स्थित है, सप्त लोक जिनके चरण है, सप्तद्वीप जिनकी जंघाओं के रूप में स्थित है|

सप्तस्वर्लोकमुकुटः सप्तसप्तिवरप्रदः ।
सप्ताङ्गराज्यसुखदः सप्तर्षिगणमण्डितः ॥ १३८ ॥

अर्थ:- सप्तलोक जिनके मुकुट के रूप में सुशोभित है, सूर्य को वर प्रदान करने वाले, सप्तांग (स्वामी, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोश, दंड, मित्र) जैसे राज्य सुख प्रदान करने वाले, जो सप्तऋषियों से सुशोभित है|

सप्तच्छन्दोनिधिः सप्तहोता सप्तस्वराश्रयः ।
सप्ताब्धिकेलिकासारः सप्तमातृनिषेवितः ॥ १३९ ॥

अर्थ:- सात प्रकार के वैदिक छन्दो (गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती) के अधिपति, सात प्रकार के हवन में स्थित रहने वाले, जो सात स्वरों के आश्रय है, सप्तसागरों (खारे, इक्षुरस, मदिरा, घृत, दधि, और मीठे जल) में क्रीडा करने वाले, सप्त मातृकाओ (ब्राह्मणी, वैष्णवी, महेश्वरी, इन्द्राणी, कौमारी, वाराही, चामुंडा) के द्वारा पूजे जाने वाले|

सप्तच्छन्दोमोदमदः सप्तच्छन्दोमखप्रभुः ।
अष्टमूर्तिध्येयमूर्तिरष्टप्रकृतिकारणम् ॥ १४० ॥

अर्थ:- वेद पाठ के द्वारा प्रसन्न होने वाले, जो सप्त छन्दो की उर्जा के स्त्रोत है, अष्टमूर्ति शिव के द्वारा पूजे जाने वाले, जो अष्टप्रकृति (अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार) के आधार है|

अष्टाङ्गयोगफलभूरष्टपत्राम्बुजासनः ।
अष्टशक्तिसमृद्धश्रीरष्टैश्वर्यप्रदायकः ॥ १४१ ॥

अर्थ:- अष्टांगयोग के माध्यम से फल प्रदान करने वाले, अष्टदल कमल के आसन पर विराजमान होने वाले, अष्टशक्तिया (तीव्रा, ज्वालिनी, नंदा, भोगदा, कामदायिनी, उग्र, तेजोवती एवं सत्य) जिनकी सेवा में उपस्थित रहती है, अष्टसिद्धियों का ऐश्वर्य प्रदान करने वाले|

अष्टपीठोपपीठश्रीरष्टमातृसमावृतः ।
अष्टभैरवसेव्योऽष्टवसुवन्द्योऽष्टमूर्तिभृत् ॥ १४२ ॥

अर्थ:- अष्टपीठ एवं उपपीठो को ऐश्वर्य युक्त करने वाले, सप्तमातृका एवं महालक्ष्मी जिनके आवरण देव के रूप में विराजमान है, अष्टभैरव के द्वारा पूजे जाने वाले, अष्टवसुओ (धर, ध्रुव, सोम, अप, अनल, अनिल, प्रत्यूष, प्रभास) द्वारा पूजे जाने वाले|

अष्टचक्रस्फुरन्मूर्तिरष्टद्रव्यहविःप्रियः ।
नवनागासनाध्यासी नवनिध्यनुशासिता ॥ १४३ ॥

अर्थ:- जो अष्टमूर्ति शिव के आधार है, जो अष्टचक्कर यंत्र स्वरूप है, जिन्हें अष्टद्रव्य (काले तिल, पोहे, मोदक, श्वेत तिल, नारियल, घी) की आहुति प्रिय है, नौ नागो के आसन पर विराजमान रहने वाले, नौ निधियो पर शासन करने वाले|

नवद्वारपुराधारो नवाधारनिकेतनः ।
नवनारायणस्तुत्यो नवदुर्गानिषेवितः ॥ १४४ ॥

अर्थ:- जो नौ द्वारो वाली मानव देह के आधार है, नौ आधारों में निवास करने वाले, नौ नारायण जिनकी स्तुति करते है, नौ दुर्गा जिनकी पूजा करती है|

नवनाथमहानाथो नवनागविभूषणः ।
नवरत्नविचित्राङ्गो नवशक्तिशिरोधृतः ॥ १४५ ॥

अर्थ:- जो नौ नाथो के भी नाथ है, नौ नागो को आभूषण के रूप में धारण करने वाले, जिनके अंग नौ प्रकार के रत्नों से सुशोभित है, नवशक्तिया जिन्हें अपने मस्तक पर धारण करती है|

दशात्मको दशभुजो दशदिक्पतिवन्दितः ।
दशाध्यायो दशप्राणो दशेन्द्रियनियामकः ॥ १४६ ॥

अर्थ:- जो दस दिशाओ या आत्माओ के रूप में स्थित है, जो दस भुजाओ वाले है, दस दिशाओ के दिक्पाल जिनके उपासना करते है, चारो वेदों और उनके अंगो और ज्योतिष के स्वामी, जो दस प्रकार की वायु में स्थित है, जो पांच ज्ञानेन्द्रियो एवं पांच कर्मेन्द्रियो पर शासन करने वाले|

दशाक्षरमहामन्त्रो दशाशाव्यापिविग्रहः ।
एकादशादिभीरुद्रैःस्तुत एकादशाक्षरः ॥ १४७ ॥

अर्थ:- जो दशाक्षर मंत्र ( ॐ हस्तपिशाचिनी हूं स्वाहा) स्वरूप है, जिनकी देह का विस्तार दसो दिशाओ में है, ग्यारह रूद्र जिनकी पूजा करते है, जो एकादश मंत्र स्वरूप है| 

द्वादशोद्दण्डदोर्दण्डो द्वादशान्तनिकेतनः ।
त्रयोदशाभिदाभिन्नविश्वेदेवाधिदैवतम् ॥ १४८ ॥

अर्थ:- जो बारह भुजाओ वाले दंडधारी स्वरूप में विराजमान है, द्वादशान्त में निवास करने वाले, 13 प्रकार के विश्वदेव जिनकी पूजा करते है|

चतुर्दशेन्द्रवरदश्चतुर्दशमनुप्रभुः ।
चतुर्दशादिविद्याढ्यश्चतुर्दशजगत्प्रभुः ॥ १४९ ॥

अर्थ:- 14 प्रकार के इन्द्रो को वर प्रदान करने वाले, 14 प्रकार के मनुओ के अधिपति, जो 14 प्रकार की विद्याओ में पारंगत है, 14 भुवनों ( सप्त उर्ध्वलोक और सप्त पाताल लोक ) के स्वामी|

सामपञ्चदशः पञ्चदशीशीतांशुनिर्मलः ।
षोडशाधारनिलयः षोडशस्वरमातृकः ॥ १५० ॥

अर्थ:- को सामवेद के 15 भागो के रूप में विद्यमान है, पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान शीतल एवं निर्मल, मानव शरीर के 16 आधारों के रूप में स्थित रहने वाले, 16 वायु संचार स्वर में स्थित रहने वाले|

षोडशान्तपदावासः षोडशेन्दुकलात्मकः ।
कलासप्तदशी सप्तदशः सप्तदशाक्षरः ॥ १५१ ॥

अर्थ:- षोडशांत में निवास करने वाले, जो सोलह कलाओ से युक्त चन्द्र के समान है, 17 प्रकार की ललित कलाओ के रूप में स्थित रहने वाले, जो 17 अंगक स्वरूप है|

अष्टादशद्वीपपतिरष्टादशपुराणकृत् ।
अष्टादशौषधीसृष्टिरष्टादशविधिस्मृतः ॥ १५२ ॥

अर्थ:- जो 18 द्वीपों के अधिपति है, जो 18 पुराणों के रचयिता है, जो 18 प्रकार की औषधियों के उत्पतिकर्ता है, जो 18 प्रकार के मीमांसा दर्शन शास्त्रों के रचयिता है|

अष्टादशलिपिव्यष्टिसमष्टिज्ञानकोविदः ।
एकविंशःपुमानेकविंशत्यङ्गुलिपल्लवः ॥ १५३ ॥

अर्थ:- 18 प्रकार की लिपियों का ज्ञान रखने वाले, जो उपनिषद के शब्द स्वरूप है, 20 कोमल उंगलियों एवं एक सुन्ड वाले|

चतुर्विंशतितत्त्वात्मा पञ्चविंशाख्यपूरुषः ।
सप्तविंशतितारेशः सप्तविंशतियोगकृत् ॥ १५४ ॥

अर्थ:- जो 24 तत्वों/ सिद्धांतो के रूप में विद्यमान है, जिनके 25 नाम है, जो 27 नक्षत्र के अधिपति है, जो 27 योगो के करता है|

द्वात्रिंशद्भैरवाधीशश्चतुस्त्रिंशन्महाह्रदः ।
षट्त्रिंशत्तत्त्वसम्भूतिरष्टत्रिंशत्कलातनुः ॥ १५५ ॥

अर्थ:- 32 प्रकार के भैरवो के स्वामी, जो 34 सरोवरों से भी विशाल सरोवर स्वरूप है, जो 36 तत्वों के स्वामी है, जो 38 कलाओ से युक्त है|

नमदेकोनपञ्चाशन्मरुद्वर्गनिरर्गलः ।
पञ्चाशदक्षरश्रेणी पञ्चाशद्रुद्रविग्रहः ॥ १५६ ॥

अर्थ:- 39 प्रकार के मारुत के विघ्न दूर करने वाले, संस्कृत वर्णमाला में 50 अक्षर की श्रृंखला, जो 50 प्रकार के रुद्रो के रूप में स्थित है|

पञ्चाशद्विष्णुशक्तीशः पञ्चाशन्मातृकालयः ।
द्विपञ्चाशद्वपुःश्रेणी त्रिषष्ट्यक्षरसंश्रयः ॥ १५७ ॥

अर्थ:- जो 50 प्रकार की विष्णु शक्तियों के स्वामी है, जो 50 प्रकार के मातृका वर्ण के रूप में स्थित है, जो 52 प्रकार की शारीरिक संरचना के स्वामी है, जो 62 अक्षर वर्णों के स्वमी है|

चतुःषष्ट्यर्णनिर्णेता चतुःषष्टिकलानिधिः ।
चतुःषष्टिमहासिद्धयोगिनीबृन्दवन्दितः ॥ १५८ ॥

अर्थ:- 64 वर्णों की रचना करने वाले, जो 64 कलाओ के ज्ञाता है, 64 योगनिया जिनकी पूजा करती है| शिव के 68 महतीर्थो में स्थित भैरव द्वारा पूजे जाने वाले, 

अष्टषष्टिमहातीर्थक्षेत्रभैरवभावनः ।
चतुर्नवतिमन्त्रात्मा षण्णवत्यधिकप्रभुः ॥ १५९ ॥

अर्थ:- शिव के 68 महतीर्थो में स्थित भैरव द्वारा पूजे जाने वाले, जो 94 मूलमंत्रो के रूप में स्थित है, जो तंत्रराज तंत्र में वर्णित 96 देवताओं के अधिपति है|  

शतानन्दः शतधृतिः शतपत्रायतेक्षणः ।
शतानीकः शतमखः शतधारावरायुधः ॥ १६० ॥

अर्थ:- जो सैकड़ो गुना प्रसन्न है, अनंत ब्रह्मांडो को धारण करने वाले, कमल के समान नेत्रों वाले, सैकड़ो सेनाए जिनके आधीन है, सैकड़ो हवन करने वाले, सैकड़ो तीक्ष्ण वज्र धारण करने वाले|

सहस्रपत्रनिलयः सहस्रफणभूषणः ।
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ॥ १६१ ॥

अर्थ:- सहस्त्रदल कमल पर विराजमान रहने वाले, जो सहस्त्र फेन वाले नाग से सुशोबित है, सहस्त्र शीश धारण करने वाले, सहस्त्र नेत्रों वाले, सहस्त्र पैरों वाले|

सहस्रनामसंस्तुत्यः सहस्राक्षबलापहः ।
दशसाहस्रफणभृत्फणिराजकृतासनः ॥ १६२ ॥

अर्थ:- जिनकी स्तुति सहस्त्र नामो के द्वारा की जाती है, जिनमे सहस्त्र इन्द्रो के समान बल है, दस हजार फेन वाले वासुकी जिनके आसन है|

अष्टाशीतिसहस्राद्यमहर्षिस्तोत्रयन्त्रितः ।
लक्षाधीशप्रियाधारो लक्षाधारमनोमयः ॥ १६३ ॥

अर्थ:- जो 80 हजार आघमह्र्षियो के स्तुति एवं श्रद्धा के बंधन में बंधे है, जो कुबेर के भी स्वामी है, लाखो प्राणियों के ध्यान को एकाग्र करने वाले|

चतुर्लक्षजपप्रीतश्चतुर्लक्षप्रकाशितः ।
चतुरशीतिलक्षाणां जीवानां देहसंस्थितः ॥ १६४ ॥

अर्थ:- चार लाख मंत्र जाप द्वारा प्रसन्न होने वाले, 18 पुराणों में वर्णित 4 लाख श्लोको के जाप से प्रकट होने वाले, 84 लाख योनियों के जीवो में स्थित रहने वाले|

कोटिसूर्यप्रतीकाशः कोटिचन्द्रांशुनिर्मलः ।
शिवाभवाध्युष्टकोटिविनायकधुरन्धरः ॥ १६५ ॥

अर्थ:- करोड़ो सूर्य के समान तेज वाले, करोड़ो चन्द्रमा के समान शीतलता एवं निर्मलता वाले, करोड़ो विनायको का नेतृत्व करने वाले|

सप्तकोटिमहामन्त्रमन्त्रितावयवद्युतिः ।
त्रयस्त्रिंशत्कोटिसुरश्रेणीप्रणतपादुकः ॥ १६६ ॥

अर्थ:- 7 करोड़ मंत्रो का तेज धरण करने वाले, 33 कोटि देव जिनकी चरण पादुकाओ को प्रणाम करते है|

अनन्तनामाऽनन्तश्रीरनन्ताऽनन्तसौख्यदः ।
इति वैनायकं नाम्नां सहस्रमिदमीरितम् ॥ १६७ ॥

अर्थ:- अनंत नामो वाले, अनंत विधा एवं वैभव वाले, अनंत प्रकार की धन सम्पदा एवं सुख सौभाग्य प्रदान करने वाले|

इदं ब्राह्मे मुहूर्ते वै यः पठेत्प्रत्यहं नरः ।
करस्थं तस्य सकलमैहिकामुष्मिकं सुखम् ॥ १६८ ॥

आयुरारोग्यमैश्वर्यं धैर्यं शौर्यं बलं यशः ।
मेधा प्रज्ञा धृतिः कान्तिः सौभाग्यमतिरूपता ॥ १६९ ॥

सत्यं दया क्षमा शान्तिर्दाक्षिण्यं धर्मशीलता ।
जगत्सम्यमनं विश्वसंवादो वादपाटवम् ॥ १७० ॥

सभापाण्डित्यमौदार्यं गाम्भीर्यं ब्रह्मवर्चसम् ।
औन्नत्यं च कुलं शीलं प्रतापो वीर्यमार्यता ॥ १७१ ॥

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं स्थैर्यं विश्वातिशायिता ।
धनधान्याभिवृद्धिश्च सकृदस्य जपाद्भवेत् ॥ १७२ ॥

वश्यं चतुर्विधं नृणां जपादस्य प्रजायते ।
राज्ञो राजकलत्रस्य राजपुत्रस्य मन्त्रिणः ॥ १७३ ॥

जप्यते यस्य वश्यार्थं स दासस्तस्य जायते ।
धर्मार्थकाममोक्षाणामनायासेन साधनम् ॥ १७४ ॥

शाकिनीडाकिनीरक्षोयक्षोरगभयापहम् ।
साम्राज्यसुखदं चैव समस्तरिपुमर्दनम् ॥ १७५ ॥

समस्तकलहध्वंसि दग्धबीजप्ररोहणम् ।
दुःखप्रशमनं क्रुद्धस्वामिचित्तप्रसादनम् ॥ १७६ ॥

षट्कर्माष्टमहासिद्धित्रिकालज्ञानसाधनम् ।
परकृत्योपशमनं परचक्रविमर्दनम् ॥ १७७ ॥

सङ्ग्रामरङ्गे सर्वेषामिदमेकं जयावहम् ।
सर्ववन्ध्यात्वदोषघ्नं गर्भरक्षैककारणम् ॥ १७८ ॥

पठ्यते प्रत्यहं यत्र स्तोत्रं गणपतेरिदम् ।
देशे तत्र न दुर्भिक्षमीतयो दुरितानि च ॥ १७९ ॥

न तद्गृहं जहाति श्रीर्यत्रायं पठ्यते स्तवः ।
क्षयकुष्ठप्रमेहार्शोभगन्दरविषूचिकाः ॥ १८० ॥

गुल्मं प्लीहानमश्मानमतिसारं महोदरम् ।
कासं श्वासमुदावर्तं शूलशोकादिसम्भवम् ॥ १८१ ॥

शिरोरोगं वमिं हिक्कां गण्डमालामरोचकम् ।
वातपित्तकफद्वन्द्वत्रिदोषजनितज्वरम् ॥ १८२ ॥

आगन्तुं विषमं शीतमुष्णं चैकाहिकादिकम् ।
इत्याद्युक्तमनुक्तं वा रोगं दोषादिसम्भवम् ॥ १८३ ॥

सर्वं प्रशमयत्याशु स्तोत्रस्यास्य सकृज्जपात् ।
सकृत्पाठेन संसिद्धिः स्त्रीशूद्रपतितैरपि ॥ १८४ ॥

सहस्रनाममन्त्रोऽयं जपितव्यः शुभाप्तये ।
महागणपतेः स्तोत्रं सकामः प्रजपन्निदम् ॥ १८५ ॥

इच्छितान्सकलान् भोगानुपभुज्येह पार्थिवान् ।
मनोरथफलैर्दिव्यैर्व्योमयानैर्मनोरमैः ॥ १८६ ॥

चन्द्रेन्द्रभास्करोपेन्द्रब्रह्मशर्वादिसद्मसु ।
कामरूपः कामगतिः कामतो विचरन्निह ॥ १८७ ॥

भुक्त्वा यथेप्सितान्भोगानभीष्टान् सह बन्धुभिः ।
गणेशानुचरो भूत्वा महागणपतेः प्रियः ॥ १८८ ॥

नन्दीश्वरादिसानन्दीनन्दितः सकलैर्गणैः ।
शिवाभ्यां कृपया पुत्रनिर्विशेषं च लालितः ॥ १८९ ॥

शिवभक्तः पूर्णकामो गणेश्वरवरात्पुनः ।
जातिस्मरो धर्मपरः सार्वभौमोऽभिजायते ॥ १९० ॥

निष्कामस्तु जपन्नित्यं भक्त्या विघ्नेशतत्परः ।
योगसिद्धिं परां प्राप्य ज्ञानवैराग्यसंस्थितः ॥ १९१ ॥

निरन्तरोदितानन्दे परमानन्दसंविदि ।
विश्वोत्तीर्णे परे पारे पुनरावृत्तिवर्जिते ॥ १९२ ॥

लीनो वैनायके धाम्नि रमते नित्यनिर्वृतः ।
यो नामभिर्हुनेदेतैरर्चयेत्पूजयेन्नरः ॥ १९३ ॥

राजानो वश्यतां यान्ति रिपवो यान्ति दासताम् ।
मन्त्राः सिद्ध्यन्ति सर्वेऽपि सुलभास्तस्यसिद्धयः ॥ १९४ ॥

मूलमन्त्रादपि स्तोत्रमिदं प्रियतरं मम ।
नभस्ये मासि शुक्लायां चतुर्थ्यां मम जन्मनि ॥ १९५ ॥

दूर्वाभिर्नामभिः पूजां तर्पणं विधिवच्चरेत् ।
अष्टद्रव्यैर्विशेषेण जुहुयाद्भक्तिसम्युतः ॥ १९६ ॥

तस्येप्सितानि सर्वाणि सिद्ध्यन्त्यत्र न संशयः ।
इदं प्रजप्तं पठितं पाठितं श्रावितं श्रुतम् ॥ १९७ ॥

व्याकृतं चर्चितं ध्यातं विमृष्टमभिनन्दितम् ।
इहामुत्र च सर्वेषां विश्वैश्वर्यप्रदायकम् ॥ १९८ ॥

स्वच्छन्दचारिणाप्येष येनायं धार्यते स्तवः ।
स रक्ष्यते शिवोद्भूतैर्गणैरध्युष्टकोटिभिः ॥ १९९ ॥

पुस्तके लिखितं यत्र गृहे स्तोत्रं प्रपूजयेत् ।
तत्र सर्वोत्तमा लक्ष्मीः सन्निधत्ते निरन्तरम् ॥ २०० ॥

दानैरशेषैरखिलैर्व्रतैश्च तीर्थैरशेषैरखिलैर्मखैश्च ।
न तत्फलं विन्दति यद्गणेश- सहस्रनाम्नां स्मरणेन सद्यः ॥ २०१ ॥

एतन्नाम्नां सहस्रं पठति दिनमणौ प्रत्यहं प्रोज्जिहाने
सायं मध्यन्दिने वा त्रिषवणमथवा सन्ततं वा जनो यः ।
स स्यादैश्वर्यधुर्यः प्रभवति वचसां कीर्तिमुच्चैस्तनोति
प्रत्यूहं हन्ति विश्वं वशयति सुचिरं वर्धते पुत्रपौत्रैः ॥ २०२ ॥

अकिञ्चनोऽपि मत्प्राप्तिचिन्तको नियताशनः ।
जपेत्तु चतुरो मासान्गणेशार्चनतत्परः ॥ २०३ ॥

दरिद्रतां समुन्मूल्य सप्तजन्मानुगामपि ।
लभते महतीं लक्ष्मीमित्याज्ञा पारमेश्वरी ॥ २०४ ॥

आयुष्यं वीतरोगं कुलमतिविमलं सम्पदश्चार्तदानाः
कीर्तिर्नित्यावदाता भणितिरभिनवा कान्तिरव्याधिभव्या ।
पुत्राः सन्तः कलत्रं गुणवदभिमतं यद्यदेतच्च सत्यं
नित्यं यः स्तोत्रमेतत्पठति गणपतेस्तस्य हस्ते समस्तम् ॥ २०५ ॥

गणञ्जयो गणपतिर्हेरम्बो धरणीधरः ।
महागणपतिर्लक्षप्रदः क्षिप्रप्रसादनः ॥ २०६ ॥

अमोघसिद्धिरमितो मन्त्रश्चिन्तामणिर्निधिः ।
सुमङ्गलो बीजमाशापूरको वरदः शिवः ॥ २०७ ॥

काश्यपो नन्दनो वाचासिद्धो ढुण्ढिविनायकः ।
मोदकैरेभिरत्रैकविंशत्या नामभिः पुमान् ॥ २०८ ॥

यः स्तौति मद्गतमना ममाराधनतत्परः ।
स्तुतो नाम्नां सहस्रेण तेनाहं नात्र संशयः ॥ २०९ 

नमो नमः सुरवरपूजिताङ्घ्रये नमो नमो निरुपममङ्गलात्मने ।
नमो नमो विपुलपदैकसिद्धये नमो नमः करिकलभाननाय ते ॥ २१० ॥

किङ्किणीगणरणितस्तवचरणः प्रकटितगुरुमतिचरितविशेषः ।
मदजललहरीकलितकपोलः शमयतु दुरितं गणपतिदेवः ॥ २११ ॥

इति श्रीगणेशपुराणे उपासनाखण्डे महागणपतिप्रोक्तं श्री महा गणपति सहस्रनाम स्तोत्र सम्पूर्णम् ।

 

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