महर्षि वेदव्यास ने कलयुग को श्रेष्ठ, शुद्रो को साधू और स्त्रियों को धन्य क्यों बताया?/ vishnu puran/ कौन श्रेष्ठ?
महर्षि वेदव्यास ने कलयुग को श्रेष्ठ, शुद्रो को साधू और स्त्रियों को धन्य क्यों बताया?
जब
भी ये चर्चा शुरु होती है कि कौनसा युग अच्छा है?, कौनसा वर्ण सबसे उत्तम और पुरुषो-स्त्रियों
में कौन श्रेष्ठ है? तो एकाएक सभी यही कहेंगे की सतयुग, ब्राह्मण और पुरुष ही सबसे उत्तम
है| लेकिन विष्णुपुरण के 6ठे अंश के दुसरे अध्याय में एक वृतांत पढने को मिला जिसमे
अत्यंत ज्ञानी ऋषि वेदव्यास जिनको धार्मिक ग्रंथो का जनक माना जाता है उन्होंने कलयुग
को सबसे श्रेष्ठ युग बताया जिसको सभी युगों में सबसे खराब बताया गया है, चारो
वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र में से शुद्र सबसे श्रेष्ठ और स्त्रियों को
सबसे धन्य बताया गया|
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ऋषि पराशर विष्णुपुराण के वक्ता है जब
ऋषि पराशर अपने शिष्य मैत्रेय को कलयुग के स्वरूप का वर्णन करते है| ऋषि पराशर कहते है की कलयुग में
मनुष्य थोडासा प्रयत्न करने से ही जो अत्यंत पुण्यराशि को प्राप्त कर सकता है वही इसी
पुण्य राशि को प्राप्त करने के लिए उसको सतयुग में महान तपस्या करनी पडती है| ऋषि पराशर आगे कहते है कि इस विषय पर उनके बेटे
वेदव्यास जी ने उनको बताया था|
एक बार मुनि आपस में चर्चा कर रहे थे
कि किस समय में थोडासा पुण्य भी महान फल देता है और कौन उसका सुखपूर्वक उसका
अनुष्ठान(निभा) सकते है? वे सभी मुनिगण अपने इस संदेह के निवारण के लिए वेदव्यास के पास गये
जो गंगानदी में स्नान कर रहे थे| उनको स्नान करता देख वो सभी नदी के तट पर पेड़ की छाया
में बैठ गये| वेद व्यास जी जब पहली डुबकी लगाई तो बोले कि ‘कलयुग ही श्रेष्ठ है’ दोबारा गोता लगाकर कहा कि ‘शुद्र!
तुम ही श्रेष्ठ हो, तुम ही धन्य हो’ तीसरी डुबकी लगाई तो बोले “स्त्रियाँ ही साधू है, वे ही धन्य है, उनसे अधिक धन्य और कौन है?”
वेदव्यास जी के मुख से ऐसी बात सुनकर
सभी मुनिगण असमंजस में पड़ गये और वेदव्यास जी से ऐसे कहने का क्या कारण है वो उसको
जानना चाहते है?
कलयुग क्यों श्रेष्ठ
है?
तब ऋषि वेदव्यास जी ने कहा कि जो फल
सतयुग में 10 वर्ष तपस्या, ब्रह्मचर्य और जाप करने से मिलता है उसे मनुष्य त्रेता में 1 वर्ष
में, द्वापर में 1 मास में और कलयुग में उसे एक दिन-रात में प्राप्त कर लेता है| जो फल सतयुग में ध्यान, त्रेता में
यज्ञ, द्वापर में देवार्चन करने से प्राप्त होता है वही फल कलियुग में श्रीकृष्णचन्द्र
का नाम-कीर्तन करने से मिल जाता है| इसीलिए मनुष्य को थोडेसे परिश्रम में ही महान धर्म की प्राप्ति हो
जाती है, इसीलिए मे कलियुग से अति संतुष्ट हूँ|
शुद्र क्यों श्रेष्ठ
है?
ऋषि वेदव्यास जी कहते है कि अन्य वर्णों जैसे
ब्राह्मण, क्षत्रिय
और वैश्यों को पुण्य प्राप्त करने क लिए बहुत कठिन मार्ग का अनुशरण करना पड़ता है|
वो नियमों में बंधे होते है| उनको ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करके ज्ञान
प्राप्त करना पड़ता है और फिर इसी ज्ञान का प्रयोग करके सही ढंग से धन कमाना पड़ता
है| नियमों में बंधे होने के कारण इनको संयम के साथ काम करना पड़ता है| सभी कर्मो
को विधि के विपरीत करने से उन्हें दोष लगता है यहाँ तक की वे भोजन और पानादि भी
अपनी इच्छा के अनुसार नही कर सकते| इस प्रकार वे लोग
बहुत कलेश और संयमी रहकर ही पुण्य लोकों को प्राप्त करते है| वही सिर्फ
शुद्र ही नियमों में बंधे हुए नही होते वो अपनी स्वतंत्रता से जो चाहे जर सकते है|
वे द्विज जातियों की सेवा मात्र से ही सदगति को प्राप्त कर लेते है इसीलिए वो अन्य
जातियों की अपेक्षा श्रेष्ठ और मैंने उनको साधु कहा है|
स्त्रियाँ क्यों धन्य है?
वेदव्यास जी बताते है कि पुरुषो को धर्म के
अनुकूल रहकर धन का अर्जन करना चाहिए फिर इसी अर्जित धन से हमेशा सुपात्र( जो लेने
योग्य हो) को दान देना चाहिए और विधिपूर्वक यज्ञ करना चाहिए| इस धन को अनुचित कार्य में लगा देना से पुरुषो को बहुत
अधिक कष्ट भोगने पड़ते है| इस तरह पुरुषो को बहुत ही अधिक
कठिन जतनो के द्वारा पुण्यलोक प्राप्त होता है| किन्तु स्त्रियाँ
सिर्फ अपने पति की तन-मन से सेवा करके और सदैव उनके हित के बारे में सोचने से
अनायास ही शुभ लोकों प्राप्त कर लेती है जोकि पुरुषो को अत्यंत परिश्रम से मिलते
है| इसिलए मेने तीसरी बार स्त्रियों को धन्य और साधु कहा था|
वेदव्यास के मुख से ऐसी बात सुनकर सभी मुनि खुश
हो जाते है क्योंकि वेदव्यासजी से बिना पूछे व्यासजी ने स्वत ही उनके सब प्रश्नों
का उत्तर दे दिया था| शुद्रो को द्विजगणों की सेवा करने से और
स्त्रियों को पति की सेवा करने से अनायास ही पुण्यलोक प्राप्त होते है| इस कलियुग में कृष्णचन्द्र का नाम-कीर्तन करने मात्र से मनुष्य
परमपद प्राप्त कर लेता है|
वास्तव
में जिन पुरुषों ने गुणरूप जल से अपने सारे दोष धो डाले हैं, उनके
थोड़े-से ही प्रयत्न से कलियुग में धर्म सिद्ध हो जाता है। तदन्तर उन्होंने
व्यासदेवजी जी की पूजन करके उनकी बार -बार प्रशंसा की और अपने -अपने स्थान को लौट
गये।
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